राजस्थान

राजस्थान की जूतियाँ

प्रेम कुमार


 

पायत्रसंण पदपीठ पहनी खलों उपांन।
जोड़ी पानह जूतियॉ, कोटा रखी कुदान।।
पगसुख पनिया पगरखी, पाप पोस पैजार।
मौजा मोचा मोचड़ा, पग पाखर पय चार।।

राजस्थान के निवासियों ने अपना पहनावा, वेशभूषा, शिरोत्राण व पगरखियाँ देशकाल तथा भौगोलिक परिस्थितयों की आवश्यकता के अनुरुप ही अंगीकार किए हैं। उन सबका पृथक-पृथक महत्व है। यहाँ विभिन्न जूतियों का पृथक-पृथक पहनावा है तथा उनकी जूतियों की बनावट भी अलग-अलग है। इन जूतियों का उपयोग भी परम्पराओं से मुक्त नहीं है। जूतियाँ आम आदमी के व्यक्तित्व की पहचान कराती है। उसके सामाजिक स्तर, धर्म, आर्थिक स्थिति, परगना आदि की पहचान जानने वाले लोग उसकी जूतियों को देखकर कर लेते हैं। यहाँ तक कि रीति-रिवाजों और मर्यादाओं की लक्ष्मणरेखा भी जूतियों से आंकी जाती है।

पावरल छणी पादुका, जूती जबरो जाण।
चवो उपानन मोचड़ी, प्राण हिता पहचान।।

राजस्थान में जूतियों के लिए कई नाम व उपनाम प्रचलित हैं जो इस प्रकार हैं: - पग रक्षिका, पादुकाएँ, जूतियाँ, कांटारखी (कांटे से रक्षा करने वाली), लपतरो, जूतड़, जूतीड़, खाहड़ा, जरबो, (मेवाड़ में), लितड़ा (फटे हुए जूते), जोड़ा, खेटर, ठेठर (जैसलमेर में), मोजड़ी, लिकतर, जूत, लपटा, पनोती इत्यादि।

राजा, महाराजा और जागीरदारों की जूतियाँ मखमल, जरी, मोती तथा अमूल्य रत्नों से जड़ित होती थीं। शादी के समय जब मोची दूल्हे के लिए विशेष जूतियाँ लाता था, तो उसे बिन्दोली कहा जाता था। इसके बदले में उसे नेग दिया जाता था। जागीरों के समय जागीरदारों एवं उनके परिवार के सदस्यों के लिए गाँव का मोची जूतियाँ बनाकर लाता था। उसके बदले में उसे पेटिया ( गेंहू या बाजरी) दिया जाता था ।

जरकस जरी रेसमी जांभौ, रतना साज सजावै।
मणियां जड़ी मोचड़ी चरणां, जोयां ही बण आवै।।

शादी - ब्याह के समय जूतियाँ हास - परिहास करने का साधन बनती हैं तथा जीजा - साली इस प्रकार की हँसी-ठिठोली के द्वारा जाने-अनजाने एक दूसरे के स्वभाव तथा उनके धैर्य इत्यादि से परिचित होते हैं। शादी के पश्चात् दूल्हा-दुल्हन देवताओं को धोकने जाते हैं, तो उनसे मजाक करने के लिए महिलाएँ एक आले में दुल्हन की जूतियों को पलिया ओढ़ाकर रख देती हैं और महिलाएँ दूल्हे के हाथ से नारियल वढ़वाती हैं और वहाँ उसके माथा नमन करती हैं। कभी-कभी दूल्हे की जूतियाँ छिपाकर साली नेग वसूल करती है। दूल्हन अपने बड़ों के सामने जूतियाँ पहनकर नहीं वलती हैं। मर्यादा के अनुसार बड़ों के सामने नंगे पाँव ही वलना होता है। महिलाएँ घर में मर्द की उपस्थिति का अनुमान ड्योढ़ी पर उसकी जूतियों को देखकर ही लगाती हैं। ऐसा विश्वास भी है नई दूल्हन, जो पीहर के घर से जूती पहनकर आती है, उसे जल्दी पहनकर फाड़ने का प्रयास करती है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उसकी जूतियाँ फटने से पीहर का कर्ज उतरता है।

मेह बिना धरती तरसै, मेहड़ों हुवण दै।
मोचड़ियाँ गणावूं मुखमलरी मेहड़ो हुवण दै।।

जोधपुर के रावटी महाराज तो जूतियों के इतने शौकीन थे कि वे अपनी मखमली जूतियों पर खरे मोती एवं हीरे-पन्ने लगवाते थे। वे इसके लिए विख्यात भी थे।

जूतियों के संबंध में और भी अनेक प्रकार के रिवाज एवं परम्पराएँ रहीं हैं। यहाँ ऐसी मान्यता है कि जब पुत्र के पैर में पिता की जूतियाँ बराबर आनी लगे, तब उसे बराबरी का दर्जा दे देना चाहिए।

जब किसी दुखियारी महिला के पीहर या मायके में कोई जीवित नहीं बचता है, तो कहा जाता है कि उसके लिए पगरखी उतारने की कोई ठौड़ अब नहीं रही है।

किसी अहसान की चरम सीमा को स्वीकार करने के लिए यहाँ आम बोलचाल में कहा जाता है कि मैं अपनी खाल के जूते भी आपको पहनाऊँ तो भी आपका अहसान नहीं उतार सकता हूँ।

घुड़ला सईयां दीसै य न ठांण।
ना रे पगाणे भँवरजी श मोचड़ा।।

पुराने जमाने में कई नामी चोर रात में चोरी करने के लिए किसी अन्य की जूतियाँ पहनकर चोरी करने जाता था और चोरी करके उसकी जूतियाँ वापस रख देता था। इस प्रकार पागी (पदचिन्ह के पारखी) जूतियों के निशान देखकर उसी को पकड़ते थे, जिसकी जूतियाँ चोर ने प्रयुक्त की थीं। किसी अपराध के साबित होने पर गाँववाले अपराधी को जूतों की माला पहनाते तथा उसे गधे पर बैठाकर पूरे गाँव में घुमाते थे। उसके लिए यह सबसे बड़ी बेइज्जती मानी जाती थी।

बुरी न से बचाने के लिए आज भी फटी-फूटी जूती घर के ऊपर लटकाई जाती है। मिरगी का दौरा पड़ने पर अज्ञानवश आज भी रोगी को जूतियाँ सुंघाते हैं। कई बार रेगिस्तान में पानी रखने का बर्तन उपलब्ध न होने पर जूती में पानी भरकर कई आवश्यक कार्य निपटाते हैं। यह प्रयोग केवल अपरिहार्य परिस्थितयों में ही किया जाता है। कई बार भेड़ की जटा काटने के लिए उसे सुलाना पड़ता है। ऐसा करते समय खारी लोग अपनी जूती उसकी आँख पर उल्टी रख देते हैं और भेंड़ भय व आँख के सामने अंधेरा पाकर निर्जिंश्चत होकर पड़ी रहती है।

राजा-रजवाड़ों में चोंचदार जूतियाँ पहनने का रिवाज प्रचलित रहा है, जिनसे चलने पर करड़-करड़ की आवाज आना रौब का चिन्ह माना जाता था। शादी शुदा स्रियाँ रंगीन, कशीदे एवं जरी वाली पगरखियाँ पहनी हैं परन्तु विधवाएँ सिर्फ काले चमड़े की सादी जूतियाँ ही पहन सकती हैं। जनानी पगरखियाँ की एड़ी सदा मुड़ी हुई रहती हैं। चौधरी एवं रबारी महिलाएँ कस्से वाली एड़ी की जूतियाँ भी पहनती हैं।

बाड़मेर और जैसलमेर के सिन्धी मुसलमानों की स्रियाँ मोटे तले, छोटे पंजे एवं रंगीन फून्दों वाली जूतियाँ पहनती हैं। इन जूतियों को शहर की मोलांगी स्रियाँ तो पहनकर चल भी नहीं सकतीं।

यहाँ यदि कोई जूतियों को चुराकर ले जावे, तो अच्छा माना जाता है। इस समय यह कहकर मन को समझाया जाता है कि मेरी पनोती उतर गई। शनिश्चर की दशा लगने पर देशान्तरी को अन्य दोनों के साथ-साथ शनिवार को जूतियाँ भी दी जाती हैं, ताकि उस दशा का स्थानान्तरण देशान्तरी पर हो जाए।

भेंड़ - बकरी चराने वाले देवदासियों की जूतियाँ बहुत कम फटती है, क्योंकि वे लोग ज्यादातर अपने जोड़ों को लकड़ी में अटकाकर कन्धे पर लेकर घूमते हैं। यदि उन्हें जंगल में पेड़ की छाया के नीचे आराम करना हो तो वे उनको सिरहाने रखकर सोते हैं। वैसे यह भी मान्यता है कि अगर किसी व्यक्ति को नींद में बुरे सपने आएँ तो उसे जूतियाँ सिरहाने रखकर सोना चाहिए। ऐसा करने से बुरे सपने नहीं आते हैं। यह भी मान्यता है कि किसी के घर से कोई अतिथि प्रस्थान कर रहा हो तो उसे वापस आते वक्त जूते अथवा जूतियाँ इत्यादि लाने के लिए नहीं कहना चाहिए।

पाँव में पहनने वाली जूतियों को बाल में सजाकर सुहाग की अन्य वस्तुओं के साथ पडले के साथ दूल्हे की तरफ से दुल्हन को भेजी जाती है। उसमें चूड़ा, नथ, तिमणिया और सिन्दूर के साथ जूतियों का जरीदार जोड़ा भी होता है, जिन्हें फेरों के समय पहनाया जाता है।

मुगलों के जमाने की नोंकदार जरी वाली जूतियाँ सली-शाही के नाम से मशहूर हुई। आज भी नवाबी घरानों में ये नाम कहे-सुने जाते हैं।

मनुष्य खाली हाथ संसार से विदा हो जाता है। शव को दाहसंस्कार के समय जब ले जाया जाता है, तब (चाहे राजा हो या रंक) उसे नई पगड़ी, धोती और कुर्ता इत्यादि पहनाए जाते हैं, परन्तु उसके पाँव नंगे ही रहते हैं। भगवान के घर विदा करते समय अमीर-गरीब किसी को भी जूतियाँ नहीं पहनाई जाती है। मृत्यु के पश्चात् ब्राह्मणों को जब धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार सुख सेज दान में दी जाती है, तो अन्य आवश्यक वस्तुओं के साथ जूतियों का दान भी दिया जाता है।

मारवाड़ में जूतियों से संबंधित अनेक प्रकार के मुहावरे भी प्रचलित हैं। जैसे - जूता पड़ना, जूता खाना, जूता बरसाना, जूतियाँ उठाणी, जूतियाँ काख में राखणी, जूतां री मन में आणे, जूतां रा भूत बातां सूं नीं मानै, जूत जरकावणा, म्हारी जाणै जूती, जूती जेड़ों तेल आदि-आदि।

इस प्रकार चमड़े की ये पादुकाएँ वर्षों का सफर तय करके आज भी अपने बदले हुए रुप में जिन्दा है। महाभारत काल में पाँच पतियों वाली द्रौपदी के कक्ष में किसी भाई की उपस्थिति का पता अन्य भाईयों की बाहर पड़ी हुई मोजड़ियों से ही चलता था। मोजड़ियों को देखकर अन्य भाई द्रौपदी के कक्ष में प्रवेश नहीं करते थे। यहाँ जूतियाँ एक मर्यादा रेखा का काम करती है।

जूतियों की दशा देखकर उनके जानकार लोग जुतियाँ पहनने वाले व्यक्ति के संबंध में भविष्यवाणी तक करते थे। उसकी चाल-ढाल, स्वभाव, वीरता तथा कायरता का अनुमान वे जूतियाँ देखकर ही कर लिया करते थे।

मानव ज्यों-ज्यों सभ्यता के सोपान पार करता गया, त्यों-त्यों भोग - विलास की सामग्री में भी बढ़ोत्तरी होती गई। उसका पहनावा ही उसकी सामाजिक स्थिति, रुतबे एवं पद की उच्चता का परिचायक बनता गया। प्रत्येक जाति एवं धर्म के व्यक्ति का सिर से पाँव तक अपना अलग ही पहनावा होता था, जो अब लगभग समाप्त हो चुका है। आज किसी का पहनावा, पगरखियाँ तथा उसकी वेष-भूषा देखकर उस व्यक्ति का सही परिचय नहीं हो सकता है। आज पगरखियों को पहनना किसी परम्परा से बंधित नहीं है, परन्तु यदा-कदा वे हमें पुराने रिवाजों की यादें जरुर ताजा कर देती हैं। आज भी अपने परिजन की शव को कंधे पर ले जाते वक्त बहुत से लोग जूतियाँ नहीं पहनते हैं तथा श्मशान तक नंगे पाँव जाते हैं। इस प्रकार कभी-कभी हमारी प्राचीन संस्कृति जूतियों के बहाने यदा-कदा जहाँ-तहाँ न आती है, जो आधुनिकता की होड़ में अब लुप्त प्राय हो रहीं हैं।

 

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