राजस्थान

राजस्थान में मूर्तिकरण की प्रक्रिया

अमितेश कुमार


लिंग रुप में प्रस्तुतीकरण

अनेक साहित्यिक साक्ष्य लिंग पूजा तथा शैव सम्प्रदाय के परस्पर सम्बन्ध की पुष्टि करते हैं। चौथी-तीसरी शताब्दी ई. पू. लिखित श्वेताश्वतर उपनिषद् में यह उल्लेख है कि यो योप्निमधितिष्ठति ........ तमीशानं (ईशान-शिव प्रत्येक योनि पर प्रतिष्ठित है)

मुख लिंग के रुप में प्रस्तुतीकरण

चौथी और आठवीं ई. के मध्य शिव का प्रतीकात्मक एवं मूर्त रुप का समन्वित रुप प्रस्तुत होने लगा जिसमें लिंग-रुप के चारो ओर मानव-रुप शिव की मुखाकृतियाँ अंकित की जाने लगी जिसे मुख लिंग के नाम से जाना गया। कभी सामने की तरफ एक मुख उत्कीर्ण की जाती थी तो कभी चारो दिशाओं की तरफ एक-एक आकृतियाँ बनाई जाती थी।

शिव को यक्ष रुप में शिवलिंगों पर अंकित करने की परम्परा राजस्थान में उत्तर गुप्तकालीन शिवलिंगों तक निरन्तर प्राप्त होती है। गामड़ी (भरतपुर) में एक शिवलिंग पर दो वृहदोदर यक्ष अंकित है। यह द्विमुख लिंग का उदाहरण है। इस प्रकार के शिवलिंग अत्यन्त विरल है।

पंचमुख लिंग के रुप में प्रस्तुतीकरण

रुपमण्डन के अनुसार पंचमुख लिंग के मुखों की संख्या गर्भगृह के द्वारों पर आधारित होती है। एक तीन या चार मुख के शिवलिंग एक द्वार, तीन द्वार या गर्भगृह के मध्य में स्थित होने पर चार मुख वाले उत्कीर्ण करने का प्रावधान है।

मुखलिंग त्रिवक्त्रं वा एकवक्त्रं चतुर्मुखम्।
सम्मुखं चैक वक्त्रंस्यात् त्रिवक्त्रे पृष्ठतोनहि।।

विष्णुधर्मोत्तरपुराण पंचमुख लिंग के पांचों रुपों की विशद व्याख्या दूसरे नामों एवं प्रतीकों के माध्यम से करता है। सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान के नाम क्रमशः महादेव, उमा, मैख, नन्दिवक्त्र तथा सदाशिव है। ये पाँचों स्वरुप पंचमुख लिंग पर उत्कीर्ण रहती है। इनमें से चार चारो दिशाओं में तथा पाँचवा इन चार मुखों के ऊपर पाँचवे मुख के रुप में अंकित रहता है। उत्कीर्ण मुखाकृतियाँ अपने नाम व प्रकृति के अनुरुप ही बनी होती है। पाँचवा मुख ईशान (सदाशिव) आकाश का प्रतीक है। अतएव नियमतः इसे उत्कीर्ण नहीं किया जाता।

राजस्थान में ८ वीं शताब्दी की एक चतुर्मुख शिवलिंग कन्सूआ (कोटा) में है। इसकी ऊँचाई कम (करीब १.५ फुट) है तथा इसका खुला हुआ मुख अघोर के वीभत्स भाव को व्यक्त करता है जबकि वामदेव का मुख मुस्कानयुक्त स्री गुणोचित कोमलता लिए हुए तथा सद्योजात तथा तत्पुरुष मुख शान्ति एवं पवित्रता अभिव्यक्त करते हुए अंकित की गई है।

कभी-कभी चार मुखों के स्थान पर कुछ अन्य प्रतीक, जो शिव के साथ संयुक्त हैं, भी शिवलिंग के चारों ओर उत्कीर्ण किये जाते थे। राजस्थान के चौमा (बंडपुरा) नामक स्थान से प्राप्त एक शिवलिंग पर शिव के सादृश्य रखती हुए यक्ष-प्रतिमा, लम्बी गर्दन वाला जल पात्र, स्रीमुख तथा सिंह अंकित है। स्रीमुख तथा सिंह क्रमशः पार्वती तथा उसके वाहन के द्योतक हैं।

प्रतीकों के साथ मानव रुप में प्रस्तुतीकरण

यह अवस्था जिसमें शिव की प्रकृति को प्रस्तुत करने वाले सभी प्रतीकों से युक्त शिवमूर्ति की मानव रुप में संकल्पना की गई है चरम अवस्था मानी जा सकती है। प्रस्तुतीकरण की विधाओं के आधार पर इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है।

१. महेश मूर्तिरुप
२. लिंगोद्भव मुर्ति

१. महेश मूर्तिरुप

विकास की प्रक्रिया में लिंग तथा मानव रुप की संयुक्त अवस्था महेश मूर्ति या त्रिमूर्ति के रुप में प्रकट होता है। इस प्रकार की मूर्ति में शिव को मुख इसके ऊपरी भाग पर सामने की ओर अत्यन्त गहराई वाले कटाव में उत्कीर्ण किये जाते हैं, चारों दिशाओं में नहीं अतः लिंग रुप अत्यन्त स्पष्ट नहीं रहता। सामान्यतः इस तरह की कृतियाँ गर्भगृह की पिछली भित्ति से जुड़ी होने के कारण चारों ओर से उत्कीर्ण नहीं की जाती। बीच वाले मुख के शीर्ष का अलंकृत जटामुकुट ही लिंग के गोलाकार शीर्ष का आभाष देता है।

कुछ प्रारंभिक विद्वानों ने इसे ब्रम्हा एवं विष्णु की शान्त मुद्रा तथा रुद्र की रौद्र मुद्रा के आधार पर त्रिमुर्ति-ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश की संयुक्त मूर्ति का नामकरण दिया था। परन्तु बाद में मूर्ति के तीनों मुखों से शिव की प्रकृति के विभिन्न रुपों का बोध होने पर इसे महेश-मूर्ति के रुप में ही मान्यता दी गई।

राजस्थान में त्रिमूर्ति के उदाहरण हमें एलीफेन्टा की महेश मूर्ति के समकालीन ही बाडोली (कोटा) में मिलते हैं जो उपरोक्त मत को और स्पष्ट करता है। यहाँ की मूर्ति में दक्षिण पार्श्व के मुख की रौद्रता, खुला हुआ मुख, हाथ में सपं तथा वाम पार्श्व के मुख का स्रीगुणोचित केशविन्यास एवं अलंकरण इसे शिव के रुप अघोर, भैरव तथा वामदेव उमा के रुप में इंगित करता है। यहाँ ब्रम्हा तथा विष्णु पृथक रुप से महेश-मूर्ति के दोनो पार्श्व में ऊपरी कोनों में हाथ जोड़े हुए शिव की उपासना में रत है। महेश-मूर्ति का एक अन्य उदाहरण चितौड़गढ़ (१४वीं-१५वीं शताब्दी) से प्राप्त होता है।

२. लिंगोद्भव मूर्ति

लिंग-प्रतीक तथा शिव मूर्ति को एक प्रतिमा में प्रस्तुत करने की दूसरी विद्या लक्षण-ग्रंथों में लिंगोद्भव मुर्ति के नाम से वर्णित है। उत्तर भारत में इस प्रकार के कुछ उदाहरण ही प्राप्त हुए हैं।

राजस्थान में इस प्रतिमा का एकमात्र उदाहरण हर्षनाथ (सीकर) के मंदिर से प्राप्त होता है। यहाँ का शिव मंदिर शैवाचार्यो द्वारा विग्रहराज द्वितीया (९५६-९७३ ई.) के राज्यकाल में बनवाया गया था। मूर्ति का अंकन पौराणिक कथा के आधार पर कथात्मक शैली में हुआ है जिसमें ब्रम्हा और विष्णु दोनो मानव रुप में बीच में अकस्मात् प्रकटित स्तम्भ को देखकर विस्मयबोधक मुद्रा में अंकित है। ब्रम्हा तथा विष्णु को उड़ते हुए नीचे घुसते हुए दर्शाया गया है।

इस तरह की प्रतिमाओं की इस क्षेत्र में विरलता यह संकेत करती है कि हर्षनाथ (सीकर) में बनी यह मूर्ति राजस्थान के दक्षिण भारत के साथ सांस्कृतिक सम्बन्धों का परिणाम है जहाँ यह कथा साहित्य अत्यन्त लोकप्रिय है।

मानव रुप में प्रस्तुतीकरण

शिव के विभिन्न स्वरुपों का मूर्त प्रस्तुतीकरण प्रचलित शैव कथाओं का महत्वपूर्ण साक्ष्य है। यह मूर्त (द्रथ्ठ्ठेsद्यत्ड़) प्रतिमा विधायक गुणों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रायः मुख्य गर्भगृह में शिव का लिंग प्रतीक शिवलिंग या मुखलिंग ही प्रतिस्थापित रहता था तथा मूर्तियां व अर्धचित्र मुख्य मंदिर एवं देवालयों की बाह्य भित्तियों पर ताखों, जंघा तथा अधिष्ठान पर अंकित किये जाते थे। मंदिर से प्राप्त मूर्तियों में से कुछ तो स्पष्ट रुप से पौराणिक कथाओं पर आधारित है पर कुछ मूर्तियाँ के पौराणिक कथा की पृष्ठभूमि का साक्ष्य नहीं मिलता। कुछ मूर्तियाँ शिव के सौम्य रुप को दर्शाती है तो कुछ उग्र रुप को। अन्य मूर्तियाँ नृत या महायोगी स्वरुप को अंकित करती है।

१. शिव की प्रकृति का सौम्य पक्ष

शिव की सौम्य मूर्तियों में पौराणिक कथाओं पर आधारित विषयों में से केवल रावण-अनुग्रह विषय ही राजस्थान की मूर्तिकला में प्रचुरता से प्राप्त होता है। सौम्य पक्ष की वे मूर्तियाँ जिनका पौराणिक आधार नहीं है, उनमें उमा-माहेश्वर तथा कल्याण-सुन्दर विषय प्रमुख हैं जो राजस्थान में प्रचुरता से उपलब्ध है।

रावण-अनुग्रह मूर्ति

रावण अनुग्रह मूर्ति से सम्बद्ध कथा यह है कि जब शिव ने रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था तब अपने अभिमान में उसने शिव सहित उनके आवास कैलाश पर्वत को ही उठा लिया था। मूर्तिकारों ने इस कल्पना को कई रुपों में अभिव्यक्त करने की कोशिश की है जिससे उनमें एक विविधता तथा स्वाभाविकता है।

राजस्थान में मिली इस तरह की प्रतिमाओं में भी मूर्तियाँ भय और विस्मय के संवेगों की मिलीजुली अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती है। सर्वाधिक प्राचीन उदाहरण ओर्सियां (जोधपुर) के हरिहर मंदिर से प्राप्त होता है। इस पंचायतन मंदिर से संसमुक्त छोटे से शिवालय में यह मूर्ति उत्कीर्ण की गई है। नागदा (उदयपुर राज्य) में बनी १०वीं सदी की एक प्रतिमा में शिव और पार्वती बैठे हुए है जिसमें पार्वती भयभीत होकर शिव का सहारा लेती है। रावण उन्हें आसन सहित उठाये हुए अंकित किया गया है, कैलाश पर्वत को नहीं। यही उसकी विशेषता है।

उमा-माहेश्वर मूर्ति

यह शिव की सौम्य मूर्तियों में सर्वाधिक प्रिय विषय माना जाता है। उमा-माहेश्वर की प्रारंभिक मूर्तियों में शिव का अंकन प्रायः दो भुजाओं वाली मूर्ति में होता है जबकि बाद की मूर्तियों में सदैव चार-भुजाएँ बनाई जाने लगी। इस प्रकार राजस्थान में दोनों प्रकार के प्रतिमाओं का उदाहरण मिलता है। उदाहरण के लिए चितौड़गढ़ के कालिका माता के मंदिर

में उमा-माहेश्वर मूर्ति में शिव मात्र दो भुजाओं युक्त अंकित किये गये हैं जबकि बाद की अधिकांश प्रतिमाएँ रुपमण्डल तथा विष्णुधमोत्तर पुराण जैसे लक्षण ग्रंथों के आधार पर निर्मित है। राजस्थान में उमा-माहेश्वर मूर्तियाँ नागदा(उदयपुर), ढालरापाटन (झालावाड़), बाडोली (कोटा), कामां (भरतपुर) तथा कई अन्य भागों से जहाँ शैव-धमर् लोकप्रिय था, प्राप्त हुई है। कई वैष्णव तथा शाक्त मंदिरों में भी पंचायतन पूजा की परम्परा के अनुसार इस तरह की प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण की गई थीं।

८ वीं -९ वीं शताब्दी तथा १० वीं- ११वीं शताब्दी की उमा-माहेश्वर प्रतिमाओं में अन्तर स्पष्ट है। बाद की प्रतिमाएँ अधिकाधिक अलंकृत तथा अलंकरण सूक्ष्मता से उत्कीर्ण किये गये हैं। यद्यपि मुख के प्रशान्त आध्यात्मिक भाव में कोई अन्तर नहीं है फिर भी संवेगों, प्रसन्नता, प्रेम और लज्जा की अभिव्यक्ति तथा यथार्थता का अभाव रहता है। नागदा, आहड़ तथा चन्द्रभागा की उमा-माहेश्वर मूर्तियाँ जो १० वीं शताब्दी में निर्मित हैं, विकास की दूसरी अवस्था को व्यक्त करती है।

कल्याण-सुन्दर या विवाह-मूर्ति

कल्याण-सुन्दर मूर्ति का विषय शिव-पार्वती के विवाह का चित्र है। यह विषय गुप्तकाल से अधिक लोकप्रिय हो गया। प्रारंम्भिक काल की मूर्तियों में हिमालय तथा मैना का वर को कन्यादान करते हुए चित्रित किया गया है जबकि बाद की मूर्तियों में हिमालय के स्थान पर विष्णु कन्यादान करते हुए चित्रित किए गये हैं।

राजस्थान में ८ वीं - ९ वीं शताब्दी के उत्तर-गुप्तकालीन मूर्तिकारों में भी यह विषय अत्यन्त लोकप्रिय था। कामां (भरतपुर) से प्राप्त एक अत्यन्त सुन्दर उदाहरण में शिव-पार्वती के विवाह को उत्कीर्ण किया गया है। इस भंग प्रतिमा में शिव-पार्वती के साथ अग्नि की परिक्रमा कर रहे हैं, ब्रम्हा अग्नि को आहुति दे रहे हैं तथा हिमालय तथा मैना की जगह विष्णु कन्या का संकल्प जल डाल रहे हैं। इसी तरह की एक अन्य मूर्ति भी इसी स्थान से प्राप्त हुई है जहाँ शिव तथा पार्वती की आकृतियाँ मुख के अनुपात में कम है। मूर्ति में पार्वती के भय तथा संवेगों की अभिव्यक्ति सफलता से की गई है।

शिव-पार्वती के विवाह के समय पुण्य-सलिला गंगा एवं यमुना की उपस्थिति को भी इस फलक में स्थान दिया गया है जिसका साहित्यियक उल्लेख कालिदास के शिव-विवाह वर्णन में मिलता है। ओसियां के एक हरिहर मंदिर के छोटे शिवालय में मंडोवर पर भी गंगा यमुना की मूर्तियां अंकित है। मुख्य फलक विवाह का दृश्य प्रस्तुत करता है तथा दोनो में गंगा और यमुना अंकित है।

२. शिव की प्रकृति का घोर स्वरुप

शिव के भयंकर रुप को प्रस्तुत करने वाली मूर्तियाँ अधिक प्रचलित नहीं थी। हमें इस तरह की मूर्तियों का उदाहरण कम मिलता है।

राजस्थान के शैव मंदिरों में शिव के त्रिपुरान्तक तथा भैरव रुप को प्रस्तुत करती हुई मूर्तियां मिलती है लेकिन वे सीमित हैं। त्रिपुरान्तक मूर्ति नीलकंठ ( अलवर), बाडोली(कोटा) तथा रामगढ़ (कोटा) के शैव मंदिरों से प्राप्त होती है। इस तरह की मूर्तियों में युद्ध के अभियान की घोषणा स्वरुप प्रत्यन्चा खींचकर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़े शिव का अंकन किया गया है उनकी वीभत्स या रौद्र भाव में अभिव्यक्ति नहीं की गई है। इस तरह का भाव सिर्फ मुण्डों की माला तथा प्रत्यालीढ़ मुद्रा से होता है।

३. मानव रुप में शिव की अन्य मूर्तियाँ

शिव की प्रकृति का एक अन्य रुप है उनकी सभी ललित कलाओं, ज्ञान तथा योग में पूर्ण दक्षता। लेकिन इन विषयों पर दक्षिण भारत की तुलना में भारत के हिस्सों में नृत्य के अतिरिक्त इस तरह की अन्य सभी मूर्तियाँ अत्यन्त दुर्लभ है। वीणाधर, ज्ञान एवं योग दक्षिणा मूर्ति आदि का तो उत्तर-पश्चिमी भारत में कोई उल्लेख विरले ही मिलता है।

शिव की नृत्त- मूर्तियाँ

उत्तर भारत विशेषतः राजस्थान में शिव के सुकुमार नृत्य को प्रस्तुत करने वाली मूर्तियाँ प्रचुरता से प्राप्त होती है दूसरी तरफ उनके घोर रुप की द्योतक मूर्तियों का पूर्णतः अभाव है।

राजस्थान में ५ वीं शताब्दी से नटराज की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण की जाने लगी थी जैसा की नगरी ( प्राचीन माध्यमिका) से प्राप्त नटराज मूर्ति से ज्ञात होता है। वाणभट्ट आदि कवियों के उद्धरणों से पता चलता है कि ७ वीं शताब्दी तक नटराज मूर्ति की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी।

राजस्थान में नटराज शिव की मूर्तियाँ चतुर, ललित, करिसम, सूचिभेद तथा उर्ध्वजानु करणों में उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियों में शिव की घोर प्रकृति का बोध उनके खुले हुए मुँह तथा बाहर निकली हुई द्रष्टाओं द्वारा होता है परन्तु चरण-तल के नीचे अपस्मार पुरुष अनुपस्थित रहता है जो दक्षिण भारत की मूर्तियों में अनिवार्य रुप से उत्कीर्ण किया जाता है। उत्तर भारत की मूर्तियों में नन्दी, गण्, वाद्य बजाते हुए अनुचर आदि अनिवार्य रुप से उत्कीर्ण किये जाते हैं।

राजस्थान में चन्द्रभागा (७ वीं-८ वीं शताब्दी) के समीप नवदुर्गा के मंदिर में संरक्षित नटराज शिव की मूर्ति में उत्तर भारत की नटराज प्रतिमाओं की सभी विशेषताएँ हैं। नृत्य की मुद्रा में स्थित इस मूर्ति का एक पैर "समपाद' स्थिति में तथा बायें हाथ की करिहस्त मुद्रा दूसरे पैर की उध्र्वाजानु स्थिति की द्योतक है तथा टूटा पैर जिसका चरण समपाद स्थिति का द्योतक है अवश्य ही कुचितकरण में होगा। इस मूर्ति की सोलह भुजाएँ है जिनमें विविध आयुध उत्कीर्ण है। शिव अपनी सहज भुजाओं द्वारा चतुर करण प्रस्तुत कर रहे हैं। भुजाओं के तीन जोड़े उर्रामण्डल मुद्रा में उत्कीर्ण है। संगीत वाद्यों में दो मृदंग आड़े रखे हुए तथा वादक भी नृत्य की मुद्रा में अंकित किया गया है। पार्वती विस्मय तथा भय के संयुक्त भावों को व्यक्त करती हुई किंकर्त्तव्यकवमूढ़ शिव के प्रति आकर्षित सी अंकित है। खुले हुए मुख से बाहर निकली दष्ट्राओं द्वारा नटराज की घोर प्रकृति व्यक्त होती है।

राजस्थान में नटराज का एक अन्य महत्वपूर्ण एवं रोचक उदाहरण बाडोली के शिव मंदिर से प्राप्त होता है। यहाँ शिव को ललित करण प्रस्तुत करते हुए अंकित है जिसमें एक हाथ करिहस्त मुद्रा में तथा दूसरा लताहस्त तथा अन्य दो उरोमण्डल मुद्रा में तथा चरणों की स्थिति निकुट्टक के रुप में अंकित है। इस मुद्रा में वामचरण जो पृथ्वी पर समपाद मुद्रा में स्थित है। दक्षिण चरण इस प्रकार उठा हुआ है कि केवल अंगूठा मात्र पृथ्वी का स्पर्श करता हुआ, तत्पश्चात् पूरा पृथ्वी से ऊपर उठता हुआ ऊर्ध्वजानु मुद्रा में उठाने के बाद पुनः पृथ्वी पर स्थापित किया जाय। इस मूर्ति के दोनो तरफ अपने-अपने वाहनों पर सवार गंगा और यमुना की मूर्तियां बनी है। बाडोली की एक अन्य मूर्ति प्रवेश द्वार के सिरदल पर चतुरकरण प्रस्तुत करते हुए उत्कीर्ण है।

नटराज की मूर्तियों का दूसरा रुप मातृकाओं के साथ नृत्य करते हुए नटराज शिव का है। इन मूर्तियों में शिव अनिवार्य रुप से पैरों की कुंचित मुद्रा के साथ चतुर करण प्रस्तुत करते हुए अंकित किये गये हैं। आबानेरी से प्राप्त मूर्ति में शिव स्वाभाविक रुप से न केवल वीणावादन कर रहे हैं बल्कि मातृकाओं के साथ नृत्य भी करते हुए अंकित है। संगीत में शिव की दक्षता दोनों स्वाभाविक हाथों में वीणा अंकित करके व्यक्त की जाती है। राजस्थान में मिले इस तरह के कुछ उदाहरणों में एक चन्द्रभागा है जहाँ शिव वीणा धारण किये उत्कीर्ण किये गये हैं।

शिव के शिक्षक स्वरुप को व्यक्त करने वाली मूर्तियाँ दक्षिणा-मूर्ति कहलाती है। इन मूर्तियों में शिव का दक्षिण सहज हस्त सदैव व्याख्यान मुद्रा में अंकित किया जाता है। दक्षिण भारत के एक अभिलेख में इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है कि शिव का नृत्य सामान्य जन की समझ से परे हैं तथा केवल ब्रम्हा, विष्णु, नारद और स्कन्द जैसे दिव्य प्राणी ही इसके दर्शक हो सकते हैं। शिव के नृत्य का यह स्वरुप झालरापाटन ( १० वीं शताब्दी) के सूर्य मंदिर के एक अर्धचित्र में भी प्रस्तुत किया गया है। पुनः मत्स्यपुराण के अनुसार नटराज की मूर्ति देव नन्दिकेश्वर तथा प्रार्थना मुद्रा में अंकित अन्य देवताओं से घिरे हुए अंकित की जानी चाहिए। झालरापाटन के मंदिर के मूर्तिकारों ने इस निर्देश का पूर्णतः

पालन किया है।

शिव प्रदोष स्रोत तथा हर्षनाथ से प्राप्त विग्रहराज क्ष्क्ष् (१०१३ विक्रम संवत्) के अभिलेख में हर्षातिरेक एवं उल्लास की अभिव्यक्ति में सुकुमार नृत्य के प्रयोग का उल्लेख है। इसमें शिव की मात्र दो भुजाएं उत्कीर्ण की जाती है। देवी पार्वती हिमालय के गिरिश्रृंगों के सिंहासन पर आसीन रहती है तथा शिव देवी के प्रसन्नार्थ नृत्य में प्रवृत होते हैं। हर्षनाथ का मंदिर में शिव की सभी प्रतिमाएँ इसी कथावस्तु के आधार पर उत्कीर्ण की गई हैं। मंदिर से प्राप्त अभिलेख के अनुसार त्रिपुरान्तक शिव ने इस पर्वत पर त्रिपुर विजय का उल्लास व्यक्त करते हुए नृत्य किया था अतएव उनका नाम हर्ष तथा शिखर का नाम हर्षगिरि हो गया।

शिव का महायोगी या लकुलीश स्वरुप

लकुलीश शिव के २४ वें अवतार माने जाते हैं जिन्होने पाशुपत शैव धर्म की स्थापना की थी। इनका आविर्भाव दूसरी शताब्दी में बड़ौदा के दभोई जिले के कायावरोहन (आधुनिक कारवण) में माना जाता है।

लकुलीश सम्प्रदाय की लोकप्रियता के साथ-साथ योगीश्वर स्वरुप का बैठे हुए लकुलीश में रुपान्तरण हो गया जिसमें लकुलीश की दो भुजाएँ एक में लकुट तथा दूसरे में मातुलिंग फल अंकित किया जाता है। शिव के लकुलीश तथा योगीश्वर दोनों रुपों में ही तपस्वी के गुणों से युक्त होने के कारण रुपांकन में सम्यता दृष्टिगोचर होती है।

लकुलीश के मन्दिर का सबसे प्राचीन उदाहरण चन्द्रभागा ( झालरापाटन, ७ वीं शताब्दी ईस्वी) के शीतलेश्वर मंदिर के ललाटबिम्ब पर उत्कीर्ण लकुलीश मूर्ति में मिलता है। इसके आधार पर यह कहा जा सकेगा कि लकुलीश की मूर्तियों का अंकन एवं पूजन ७ वीं शताब्दी से प्रारम्भ हो गया था तथा लकुलीश शैव मन्दिरों में प्रमुख देव के रुप में अधिष्ठित होने लगे थे। यद्यपि गर्भगृह का प्रमुख पूजा प्रतीक अभी भी लिंग था। उदयपुर क्षेत्र में लकुलीश की पूजा १० वीं शताब्दी में प्रचलित थी। एकलिंग मंदिर के ९७१ ईस्वी तथा १२७४-१२९६ ईस्वी के अभिलेख, पालड़ी ( उदयपुर) के वामेश्वर मन्दिर का १११६ ईस्वी का अभिलेख तथा एकलिंग, चित्तौड़गढ़ से प्राप्त आठवीं शताब्दी की लकुलीश प्रतिमाएं यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि आठवीं शाताब्दी में लकुलीश की पूजा प्रचलित एवं लोकप्रिय थी तथा दसवीं शताब्दी तक रही। भंडारकार ने अनेक लकुलीश मन्दिरों का उल्लेख किया है।

नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लकुलीश की प्रतिमाओं में लकुलीश तथा योगीश्वर शिव दोनों के स्वरुपों को सम्मिलित रुप से अंकित किया जाता था। लकुलीश चार हाथ, जटामुकुट, श्रीवत्स लांछन तथा पद्मासन पर बैठे हुए नासाग्र दृष्टि से युक्त उत्कीर्ण किए जाते थे। ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लकुलीश का प्रतिमा वैज्ञानिक विधान अपने निश्चित रुप को प्राप्त कर चुका था। अब उनकी प्रतिमा तपस्वी के रुप में उत्कीर्ण की जाने लगी थी जो बुद्ध तथा तीर्थकर की मूर्कित्तयों से साम्यता रखती थी।

राजस्थान में लकुलीश पूजा के प्रमुख केन्द्र एकलिंग (उदयपुर), बाडोली ( कोटा) तथा चन्द्रभागा (झालरापाटन) थे, परन्तु पश्चिमी राजस्थान के अन्य भागों में भी लकुलीश की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। बेलार, नाना, छोटन तथा आबू के मन्दिरों में लकुलीश की प्रतिमाएं गर्भगृह के द्वारों पर उत्कीर्ण प्राप्त होती हैं। नान (१२९० विक्रम संवतउ१२३३ ईस्वी) तथा छोटन (१३६५ विक्रम संवत उ१३०८ ईस्वी) से प्राप्त मूर्तियां अभिलेखयुक्त होने के कारण यह प्रमाणित करती हैं कि लकुलीश की पूजा इस क्षेत्र में १३ वीं शताब्दी तक प्रचलित थी। बाड़ोली के एक ध्वस्त द्वार के सिरदल पर ललाट-बिम्ब के स्थान पर लकुलीश की प्रतिमा अंकित है। इस प्रतिमा में बैठे हुए लकुलीश के दोनों पार्श्वों में ब्रम्हा एवं विष्णु की मूर्तियाँ हैं। मूर्ति के चार हाथ हैं परन्तु हाथों के आयुध आदि चिन्ह नष्ट हो चुके हैं।

शिव के योगीश्वर रुप का अंकन लकुलीश के रुप में राजस्थान के मूर्तिकारों में भी प्रचलित था। नागदा के सास मंदिर में एक शिव की प्रतिमा योगासन में बैठी हुई ऊपरी दो हाथों में त्रिशूल तथा सपं लिए तथा निचले हाथों में एक में अक्षमाला तथा दूसरे में मातुलिंग फल लिए अंकित है। पद्मासन के पास दोनों ओर दो बृहदोदर आकृतियां बैठी हुई अंकित की गई हैं, जो सम्भवतः लकुलीश के दो शिष्य हो सकते हैं। यह मूर्ति योगीश्वर स्वरुप का लकुलीश में रुपान्तरण के संक्रमण की अवस्था की दिग्दर्शिका है।

राजस्थान में बुद्ध तथा जिन के समान मुड़े हुए बालों वाले सिर के स्थान पर जटामुकूट युक्त लकुलीश मूर्तियों की प्राप्ति भी इस धारणा को पुष्ट करने में सहायक है।

इस प्रकार लकुलीश तथा योगीश्वर स्वरुपों की साम्यता एवं पहचान के लिए ही लकुलीश जटामुकुट युक्त अंकित किए जाने लगे।

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