राजस्थान

 

राजस्थान में अंग्रेजी शिक्षा का विकास

राहुल तोन्गारिया


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अठाहरवीं शताब्दी तक राजस्थान में प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था ही प्रचलित थी। राज्य की ओर से शिक्षकों को अनुदार दिया जाता था।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शिक्षा
स्थान पाठशालाएँ रिपोर्टकर्ता स्रोत
जोधपुर ९४ निक्सन जोधपुर एजेंसी रिपोर्ट, रैरा १४
जयपुर ११० ब्रुक ज.ए. रि., पैरा १७
कोटा असंख्य बेनन हाडौती ए.रि., पैरा ३
भरतपुर असंख्य वाल्टर भ.ए.रि., पैरा २५
अलवर १०१ हेमिल्टन अ.ए.रि., पैरा ३१
सिरोही ३८ ब्लेक सि.ए.रि., पैरा २
अजमेर-मेरवाड़ा ११३

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अजमेर मेरवाड़ा रिपोर्ट, पैरा १७

इस काल में शिक्षा का माध्यम संस्कृत तथा फारसी भाषा था। विधार्थी को प्रवेश देने के लिए कोई निश्चित नियम नहीं था। शिक्षा पर व्यय होने वाली राशि को दान या पुण्य का कार्य माना जाता है।

अंग्रेजी शिक्षा का प्रारम्भ

ईसाई मिशनरी ईसाई धर्म के प्रचार हेतु अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे, जबकि अंग्रेज अधिकारी बातचीत एवं पत्र व्यवहार के मार्ग में आने वाली कठिनाईयों को दूर करने के लिए शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाना चाहते थे।

राजस्थान में अंग्रेजी शिक्षा सर्वप्रथम अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र से प्रारम्भ हुई। यहां श्रीरामपुर के बैप्टिस्ट प्रचारक डॉ. विलियम केरी के पुत्र जेवजकेरी को भेजा गया। उसने रेजीडेंट आॅक्टर की सहायता से अजमेर एवं पुष्कर में स्कूल खोले। इसके बाद केकड़ी तथा भिनाय में स्कूलों की स्थापना की गई। इन स्कूलों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा दी जाती थी, अत: १९३१ ई. में ये सारे स्कूल बंद हो गये।

लार्ड मैकाले ने १८३५ ई. में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बना दिया, इसलिए शिक्षा के स्वरुप में परिवर्तन आना स्वाभाविक था। मार्च १८३६ ई. में बंगाल सरकार के अन्तर्गत "जनरल कमेटी आॅफ पब्लिक इन्सट्रक्शन' ने अजमेर में पहला सरकारी स्कूल खोला, परन्तु १८४३ ई. में इसे भी बंद कर दिया गया। १८४२ ई. में अलवर के शासक बन्नेसिंह ने अलवर में एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की। जिसे १८७० ई. में हाई स्कूल बना दिया गया। १८४२ में भरतपुर में स्थापित अंग्रेजी स्कूल ने भी प्रगति की।

अंग्रेजी शिक्षा का विकास - 

जयपुर - जयपुर में अंग्रेजी शिक्षा का बहुत विकास हुआ। वहाँ के शासक रामसिंह ने १८४४ ई. में जयपुर में "महाराजा स्कूल' की स्थापना की, जो आगे चलकर "महाराजा कॉलेज' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८६६ में इसमें ८०० छात्र पड़ते थे। १९०० ई. में पोस्ट डिग्री कॉलेज बना दिया गया।
१८६१ ई. में जयपुर में मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई। इस कॉलेज से ६ वर्ष में मात्र १२ छात्र ही सफलता प्राप्त कर सके। इसके बाद १८६७ ई. में मेडिकल कॉलेज बंद हो गया।

अजमेर - टॉमसन की रिपोर्ट के आधार पर १८४८ में अजमेर में पुन: सरकारी स्कूल की स्थापना की गई। यह स्कूल धीरे-धीरे विकास करता गया और १८६९ में इसे डिग्री कॉलेज बना दिया गया।

होड़ौती - बून्दी के शासक रामसिंह ने १८६३ ई. में एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की। झालावाड़ के शासक ने भी पाटन तथा छावनी में अंग्रेजी स्कूल स्थापित किये, किन्तु कोटा के शासक ने आर्थिक कठिनाई के कारम राजकीय व्यय पर अंग्रेजी स्कूल खोलने में असमर्थता व्यक्त की।

जोधपुर - १८६७ में राव राजा मोती सिंह ने कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों की सहायता से जोधपुर में एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की, जिसे बाद में सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया और #ुसका नाम "दरबार स्कूल' रखा। बाद में इसे डिग्री कॉलेज बनाकर इसका नाम "जसवन्त कॉलेज' रखा। यहाँ १८८७ में कायस्थों ने "सर प्रताप हाई स्कूल', १८९६ में ओसवाल महाजनों ने "सरदार मिडिल स्कूल' और १८९८ में क्षत्रिय मालियों ने "श्री सुमेर सैनी मिडिल स्कूल' की स्थापना की।

बीकानेर - १८८५ में बीकानेर में एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की गयी, जिसे बाद में हाई स्कूल बना दिया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया।

उदयपुर - उदयपुर के महाराणा की अंग्रेजी शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। महाराणा शम्भूसिंह (१८६१-७४) जब नाबालिक थे, तब ईडन ने उदयपुर नगर के समस्त पाठशालाओं को मिलाकर "शम्भूरत्न पाठशाला' के नाम से एक बड़े स्कूल की स्थापना की १८६५ से इसमें अंग्रेजी शिक्षा दी जाने लगी। १८८५ में इसे हाई स्कूल बना दिया गया।

१९वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ जैसे छोटे राज्यों में भी अंग्रेजी स्कूल स्थापित किये गए।

राजपूतों की शिक्षा

राजपूत शासकों की रुचि अंग्रेजी शिक्षा के प्रति नहीं थी। उनका मानना था कि अंग्रेजी जीवकोपार्जन का एक साधन मात्र है। अत: वे अपने पुत्रों को अंग्रेजी स्कूलों में निम्न वर्ग के लड़कों के साथ भेजने के विरुद्ध थे। ऐसी स्थिति में अंग्रेज अधिकारियों ने सामन्त पुत्रों के लिए अलग से विशिष्ट स्कूल स्थापित करने का निश्चय किया। १८६६ ईं में सरदारों तथा राजपूतों के लड़कों के लिए जयपुर में "नोबिल्स स्कूल' की स्थापना की गई, परन्तु १८६९ ई. तक इसमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या मात्र २२ थी।

१८७१ ई. में ठाकुरों के पुत्रों हेतु अलवर में एक पृथक स्कूल की स्थापना की गई। १८७५ में जोधपुर राज्य में "पाउलेट नोबिल्स स्कूल' की स्थापना की गई। सामान्य राजपूतों के लिए १८९६ ई. में "एलिगिन राजपूत स्कूल' की स्थापना की गई। १८७७ में उदयपुर में सरदारों के पुत्रों हेतु "शम्भुरत्न पाठशाला' में एक विशेष कक्षा प्रारम्भ की गयी। १८९३ ई. में बीकानेर में "वाल्टर नोबिल्स स्कूल' कायम किया गया।

इस प्रकार शासकों ने अपने सामंतों में अंग्रेजी शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। इन स्कूलों का पाठ्यक्रम सार्वजनिक स्कूलों से भिन्न रखा गया था।

शासकों की शिक्षा में अंग्रेज सरकार की रुची

जब राजस्थान पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित हो गया, तब से ही अंग्रेजों ने राजपूत शासकों एवं उनके पुत्रों के लिए अंग्रेजों ने शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व का अनुभव कर लिया था। एस सम्बन्ध में उन्होंने कोई निश्चित नीति नहीं अपनाई, अपितु अवसर के अनुकूल कार्य करना उपयुक्त समझा।

१८३६ ई. में जयपु नरेश रामसिंह की शिक्षा के लिए कम्पनी के निर्देशकों ने गवर्नर जनरल को निस्तृत निर्देश भेजे थे। इसी प्रकार भरतपुर के जसवन्त सिंह, अलवर के शिवदान सिंह एवं उदयपुर के शम्भूसिंह की शिक्षा में अंग्रेज सरकार ने विशेष रुचि ली थी।

१८५७ के विद्रोह के समय राजपूत शासकों की स्वामी भक्ति पूर्णरुप से स्पष्ट हो गयी थी, अत: ब्रिटिश सरकार ने राजपूत शासकों की स्वामी भक्ति और आज्ञाकारिता की भावना को और दृढ़ करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा पर बल देने का निश्चय किया। मेयो कॉलेज इसी भावना का परिणाम था।

मेयो कॉलेज - भरतपुर के तत्कालीन पोलीटिकल एजेण्ट वाल्टर ने सर्वप्रथम ए.जी.जी कर्नल कीटिंग को यह सुझाव दिया था कि राजपूत शासकों और बड़े सामन्तों के पुत्रों के लिए एक पृथक कॉलेज की स्थापना की जाए। कीटिंग ने यह सुझाव गवर्नर जनरल लार्ड मेयो के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। लार्ड मेयो की हार्थिक इच्छा थी कि इंग्लैण्ड "ईस कॉलेज' के समान राजस्थान में भी कॉलेज की स्थापना कर दी जाए। अत: इसे कीटिंग का प्रस्ताव रुचिकर लगा।
१८७० ई. में अजमेर में एक विशेष दरबार आयोजित किया गया, जिसमें राजस्थान के प्रमुख राजा, महाराजाओं व सरदारों ने भाग लिया। इसमें लार्ड मेयो ने अजमेर में एक विशिष्ट कॉलेज की स्थापना की। लार्ड मेयो ने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज उनके हितैषी है, अत: उन्हें भी चाहिए कि वे ब्रिटिश साम्राज्य की अपनी योग्यतानुसार सेवा करें व अंग्रेजों के सरक्षण में ही सही दिशा में आगे बढ़े।
राजपूत शासकों ने मेयो के कॉलेज खोलने के प्रस्ताव का स्वागत किया और उसके निर्माण के लिए यथा शक्ति आर्थिक सहयोग भी किया। अक्टूबर १८७५ ई. में मेयों कॉलेज की स्थापना हुई और इस कॉलेज में प्रवेश लेने वाला प्रथम छात्र अलवर नरेश मंगलसिंह था।
७ नवम्बर, १८८५ ई. को डफरिन ने मेयो कॉलेज के मुख्य भवन का उद्घाचन किया। इस कॉलेज के प्रांगण में जयपु, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, भरतपुर, बीकानेर, झालावाड़, अलवर एवं टोंक आदि राज्यों के शासकों ने अपनी निजी छात्रावास बनवाये।
मेयो कॉलेज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य राजपूत राज्य के भावी शासकों में ब्रिटिश शासकों के प्रति स्वामी भक्ति तथा आज्ञाकारिता की भावना को दृढ़ करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों को को विद्या, बुद्धि, तर्क शैली, रहन-सहन, खानपान तथा आचार-विचार आदि दृष्टि से अंग्रेज बनाने का प्रयत्न किया गया। उनमें अंग्रेजी राज एवं मान्यताओं के प्रति अगाध श्रृद्धा तथा भक्ति की भावना भरी जानी लगी। उन्हें भारतीय संस्कृति से भिन्न वातावरण में पोषित किया जाने लगा। फिर भी इसका पाठ्यक्रम सामान्य स्कूलों के पाठ्यक्रम से अधिक भिन्न नहीं था। यहाँ शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नौकरी दिलवाना था। इसके विरुद्ध शासकों में असंतोष फैला, क्योंकि वे ऐसी शिक्षा के पक्ष में नहीं थे। अत: १९वीं शताब्दी के अंत तक पाठ्यक्रम के विषय पर विवाद चलता रहा।
मेयो कॉलेज के कारण अंग्रेज अधिकारियों को राजपूत राज्यों के भावी शासकों के साथ घुलमिल जाने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त कॉलेज में आयोजित विभिन्न समारोह के अवसर भी प्रदान किया। कॉलेज की स्थापना के समय और उसके कुछ समय बाद मेयो कॉलेज की काफी प्रतिष्ठा थी, किन्तु धीरे-धीरे छात्रावासों का वातावरण दूषित होने के कारण कॉलेज की प्रतिष्ठा गिरने लगी।

स्री शिक्षा - १८६६ ई. में स्री शिक्षा हेतु सर्वप्रथम भरतपुर, जयपुर और उदयपुर में सरकारी स्कूल की स्थापना की गई।
उदयपुर के स्कूल के प्रारम्भ में १३ छात्राएँ तथा दो शिक्षिकाएँ थीं। जयपुर के महिला स्कूल के लिए १८६७ ई. में कलकत्ता से श्रीमती ओगलदीन को बुलवाकर प्रधाध्यापिका नियुक्त किया गया।
उसने इन स्कूलों को तीन दर्जे में विभक्त किया। प्रथम दर्जे में केवल प्रारम्भिक ज्ञान की जानकारी, द्विताय एवं तृतीय दर्जे में भूगोल, साधान गणित एवं सिलाई की जानकारी देने की व्यवस्था की गई। १८८७ ई. में जोधपुर तथा १८८८ ई. में भरतपुर में भी महिला स्कूल खोले गए। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक विभिन्न राज्यों में महिला स्कूलों एवं पढ़ने वाली छात्राओं की स्थिति इस प्रकार थी।

 

राज्य का नाम स्कूलों की संख्या अध्ययनरत छात्राएँ
जयपुर ६९५
बीकानेर १५७
कोटा १११
झालावाड़ २७
टोंक ७५
भरतपुर १०५
उदयपुर १२५
जोधपुर ४९
करौली १२

उपर्युक्त स्कूलों में उच्च शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। छात्राओं को लिखाई-पढ़ाई, प्रारम्भिक गणित एवं सिलाई की शिक्षा दी जाती थी। उस समय समाज में बाल-विवाह, योग्य शिक्षिकाओं का अभाव एवं स्री शिक्षा के प्रति सार्वजनिक रुचि का अभाव आदि ऐसे कारण थे, जिनकी वजह से स्री शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति न हो सकी।

मिशन स्कूल - यूनाइटेड प्रेस्बिटेरियन मिशन अपने धर्म प्रचार कार्य में मिशन शिक्षा को एक मुख्य साधन मानता था, अत: मिशन केन्द्र की स्थापना के कुछ महीनों बाद अगस्त, १८६० में रे. स्कूल ब्रेड ने ब्यावर में प्रथम मिशल स्कूल स्थापित किया। इनमें एक स्थानीय धर्म परिवर्तित ब्राहम्ण बाबू चिंताराम ने महत्तवपूर्ण सहयोग दिया। इस स्कूल में उर्दू व हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी शिक्षा भी दी जाती थी। इस स्कूल ने काफी लोकप्रियता प्राप्त की। यहाँ तक कि सरकार ने ब्यावर में स्थापित सरकारी स्कूल को बन्द कर दिया। परन्तु बाद में इस स्कूल में हरिजन लड़कों को भी प्रवेश दे दिया। अत: दो-तिहाई हिन्दू छात्रों ने इस स्कूल को छोड़ दिया।
मार्च, १८६२ में मिशल ने अजमेर स्कूल की स्थापना की। स्थानीय पंडितों ने स्कूल में हरिजन लड़कों को प्रवेश न देने की मांग की। उनकी इस मांग को मिशन ने मानने से इन्कार कर दिया। पंडितों के विरोध के बावजूद भी मिशन द्वारा स्थापित अजमेर के स्कूल ने संतोषजनक प्रगति की। इसका मुक्य कारम यह था कि मिशन ने स्कूल का समय प्रात: काल का रखा। ताकि नौकरी पेसा वर्ग के लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सके एवं वे अधिक से अधिक स्कूल में प्रवेश लेने के लिए आकृष्ट हों।
इसके बाद मिशन स्कूलों की संख्यां में निरन्तर वृद्धि होने लगी। १८६२, १८६४ व १८७१, १८७२ में नसीराबाद, टोड़ागढ़, देवली एवं जयपुर में स्कूल खोले गए। १८७६ में सांभर और फुलेरा तथा १८७७ में अलवर में मिशल स्कूल स्थापित किये गए। १८८३ में बांदीकुई, १८८५ में जोधपुर एवं उदयपुर तथा १८८९ में कोटा में मिशन द्वारा स्कूल स्थापित किये गए।
मिशन ने लड़कियों की शिक्षा के लिए भी स्कूल खोलो। १८६२ में प्रारम्भिक पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ सिलाई, बुनाई एवं कसीदे का काम भी सिखाया जाता था। १८६३ ई. में श्रीमती फिलिप्स ने अजमेर में एक गल्र्स स्कूल की स्थापना की। जिसे काफी लोकप्रियता मिली। इस स्कूल के संचालकों ने नगर के ओसवार, जैन परिवारों की स्रियों से घनिष्ठ संबंध स्थापित किए और उनमें शिक्षा के लिए जागरुकता उत्पन्न की।
१८६४ ई. में मिशन ने ब्यावर नगर में अपनी लियो प्रेस स्थापित की, जिसमें पाठ्य पुस्तकों व धार्मिक साहित्य को छापा जाता था।

निष्कर्ष - उन्नीसवीं सदी के अन्त में राजस्थान में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के लिए शासकों, उच्च जातियों, प्रतिष्ठित नागरिकों, अंग्रेज अधिकारियों एवं ईसाई धर्म प्रचारकों आदि सभी ने सराहनीय योगदान दिया। व्यवसायी तथा नौकरी पेशा वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ने एवं अंग्रेजों का कृपापात्र बनने के प्रलोभन से उसका स्वागत किया। इसलिए बीसवीं सदी में अंग्रेज शिक्षा का प्रसार हो गया।

 

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