राजस्थान

 

राजस्थान के विवाह लोकानुरंजन

राहुल तोन्गारिया


जीवन में शादी-विवाह "वाह' बनकर आते हैं। इन दिनों जो चहल-पहल, राग-रंग, साज-श्रृंगार, ठाट-बाट व कई प्रकार के मनोरंजन देखने को मिलते हैं, उतने अन्य मांगलिक अवसरों पर कम देखने को मिलते हैं। विवाह होने के बहुत पहले ही बड़े जोर-शोर व भरपूर उत्साह से तैयारियाँ शुरु हो जाती है। आसपास की तथा दूर बसी सभी नूताणिएं (सम्बन्धी औरतें) बुलाई जाती हैं। पीलो गोबर से घरों के आँगन लेपे जाते हैं। पांडु से ऊमाड़ी से बनी वारा कूंची की सहायता से विविध प्रकार के आकार-प्रकार के मांडने मांडे जाते हैं। इन मांडनों में चौक, जलेबी, फूलड़ी आदि के विशेष नाम उल्लेखनीय हैं। आंगन के चारों ओर दीपकों की शक्ल के मांडने बनाए जाते हैं। हड़मची से रगें आंगन पर इन मांडनों की चमक देखते ही बनती है। घर से बाहर हाथी, घोड़े, ऊँट (ढोला-माखण), गणेशजी, छड़ीदार, पतंग उड़ाता हुआ पुरुष तथा भौजाई के कांटा निकालता हुआ देवर आदि के विविध चितराम चित्रित कराएँ जाते हैं। औंरतें मेंहदी से विविध मांडनों में अपने हाथ मांडती हैं। इन मांडनों में पाँच फूल, सुपारी का झाड़, नौ बिजणी, सोलह बिजणी, बारह बिजणी, तोपखाना, चूंदड़, कटमा फूल तथा दली चोक जैसे मांडने अधिक प्रचलित हैं। इन बूंटों में सड़क, बाल्टी, सपं, शस्करपारा तथा रुपये के बूटें अत्यधिक लोकप्रिय हैं।

औरतों के माथे पर गोंद की सहायता से बालों की मिण्डिएं चिपकाई जाती हैं, चोटी के आंटी बांधी जाती है। घाघरों में पट्टीदार, झालरदार, माजादार, लहरगोरादार, भागरदार, पत्तियांदार तथा पचाल-अस्सी पन्ने के घाघरे पहने जाते हैं। साड़ियों में घनक, लहरिया, चूंदड़, घाट जैसी साड़ियों से श्रृंगार किया जाता है। आजकल तो तारा, कटोरा, पत्तियां, रसगुल्ला, पखुंड़ियां, जलेबी तथा ईंटों वाली आदि कई एक साड़ियां देखने में आती हैं। कुछ भी हो, विवाह की शोभा बढ़ाने वाली औरतें ही तो होती हैं। प्रसंगानुसार अलग-अलग प्रसंगों के गीत इनके कोकिल कण्ठों से स्वत: फूट पड़ते हैं। औरतें अपने घरों की सारी चिन्ताएं, समस्याएं तथा काम-धन्धे छोड़कर निर्जिंश्चत हो ब्याह शादियों में आती हैं। जमाई-ब्याई तथा बारातियों को गालियां गाकर वे उन्हें मन के जो उद्गार-उन्माद होते हैं, सुना देती हैं। इन अवसरों पर हल्की-फुल्की गालियां भी उनके मुँह से सुनाई देती हैं, जो इसी खुशी तथा फुलझड़ी का काम करती हैं।

विवाह की सारी तैयारियां इन्हीं औरतों पर निर्भर रहती हैं। पापड़, बड़ी, छाछबड़ी, छावड़ी आदि बनाए जाते हैं। गेहूं का रवा तथा चने की दालें आदि सब औरतें ही बनाती हैं। गेहूं बीनने-हेतु पास-पड़ोस की औरतों को भी तेड़ा दे दिया जाता हैं। ऐसे अवसरों पर भी उनके गलों से गीत स्वत: बरस पड़ते हैं। जिससे मनोरंजन तो होता ही है साथ ही कठिन से कठिन तथा बहुत सारा काम भी वे बिना थकान महसूस किए शीघ्र ही समाप्त कर लेती हैं। गेहूं बीनते (साफ करते) समय बना-बनी के कई एक सुन्दर रंगीन गीतों के अलावा भाईली तथा घूघरी जैसे गीत भी गाए जाते हैं। मधुर स्वरियें स्वर में स्वर मिलाकर जब -

हां जी बना आजो म्हारे दादा सा रे देश,
घणी ने छवि सूं आजो परणवा जी म्हाराज।
हां ए बनी कस्यो थारा दादा सा रो देश,
कणी ने दरवाजे आवां परणवाजी म्हाराज।
हां जी बना आमा-सामा सूरज सामी पोल,
हसती घूमै छै म्हारै बारणै जीम्हारा राज,
घोड़ला घूमै छै म्हारे बारणै जी म्हारा राज।

सामूहिक रुप से गाती हैं, तब लगता है गीत-बोलों की बहारें इन्द्र तथा परियों के देशे के रागरंगों को भी मात किए जा रही है। विवाह के अवसर पर "आमा-सामा सूरज सामी पोल पोल' तथा "हसती घूमै छै म्हारे बारणे' जैसे गीतों की कल्पना कितनी सरस, सुखद एवं अभिराम है।

आवो बनाजी गोद्यां लेंलूष
काय में थाणो जीव बनीजी।
कोटे म्हारो सासरो जी कांई,
बूंदी म्हारो पीर बनीजी।
सैल करो अजमेर ....
जैपुर म्हारी भाईलीजी काईं,
बीच में म्हारी जीव बनीं जी
सैल करो अजमेर ...

हाथी-घोड़ों से सजी बारात आने वाली है, दादा-सा के ऊंचे-नीचे महलों पर से सभी बरात देखेंगी, बारात में कौन-कौन बेवाई जी होगें, कितने जान्ये (बाराती) होगें और कैसे सज-धजकर आ रहें होगें। बारात कोई मामूली तो है नहीं, दोनों ही घर अपने आप में सम्पन्न जो हैं -

दादा सारा ऊंचा - नीचा मेल,
पाना ओ फूलां छाई रया जी।
ओजी जां चढ़ देखूं बरात,
बरात देख्यां भात रांधूं मात रांधंजी।

तथा -

हाथीड़ा हजार लाया
घोड़ला पचाल लाया
ओजी जान्या रो छै यो नी पार
ब्याईड़ा ने कुण जाणे कूण जाणे जी।

हजार हाथी तथा पचास घोड़ो के साथ बारातियों की संख्या तो इतनी है कि गिनने में भी नहीं आ रही है। इन हाथी, घोड़ों तथा बारातियों के लिए अलग-अलग व्यवस्था का कितना सुंदर एवं स्वभाविक वर्णन है यथा -

हस्ती ने ठाणे बांधूं
घोड़ला ने पाइगे बांधूं
ओजी जान्या ने दो जानी वासो
बेवाइड़ा ने खेंची बांधों, खेंची बांधों जी।

यही नहीं उनके खाने-पीने की बात भी गीतों में स्पष्ट अंकित है -

हसती ने लूंद देसां
घोड़ला ने दाणों देसां
ओजी जान्या ने खांड ने भात
बेवाईड़ा ने मांड पावो, मांड पावो जी।

बेवाई तो इसी योग्य है कि उन्हें शक्कर - चावल न खिलाकर चावल का केवल मांड ही पिलाया जाए। शादी के विविध प्रसंगों पर बेवाई सम्बन्धी विविध गालें गाई जाती हैं, जिनमें शिष्ट हास्य, शिष्ट व्यंग्य के साथ-साथ शिष्ट मनोरंजन की मात्रा प्रधान रुप में देखने में आती हैं। ये गीत खाली गाने के लिए नहीं होते हैं, बल्कि दिल बहलाव के साथ-साथ कई खरी-खोटी बातें भी इनके जरिए गाई, सुनाई जाती हैं। जैसे -

ओ सासु गाल मत दीजे
म्हें तो पाली पंपोली मोटी कीदी
म्हारे हरिया बागां री कोयल
म्हारे राय आंगण रो रमत्यो
म्हारे कर करिया री बींटी
म्हें तो खाजा देई न खिलाई
ओ सासु - ................

इसी प्रकार - 

म्हारी बाई पीसे नहीं
म्हारी बाई पोवै नहीं
औजी पाव्यूड़ा भरतनी जाए जी
घीयड्यां म्हारी लाड़लीजी लाड़ली।

इसलिए -

थाणी बाई पीसेला
थाणी पाई पोवेला
ओजी पाणीला हँस-हँस जाय
माता तो म्हारी डोकरी जी, डोकरी जी
ओजी डोकरी रे टोकर्याँ बंधावों
घीयड़ी म्हारी लाड़ली छै लाड़ली जी।

वाली बात भी वे स्पष्ट रुप से कह सुनाती हैं। बिना लागलपेट के बात, बोली और घूंघट द्वारा बात वे स्पष्ट्यता नहीं कह पाती हैं। वह बात वे इन गीतों के माध्यम से सुना देती हैं, घूघरी गीत में -

वीराई रुपा केरी तोलड़ी मंगावों
गारा ओ केरी ढांकणींआ
वीरारे गा केरी घूघरी रंदाड़ो
खाओ केरी लापसी

ननद भौजाई की वैमनस्यता आपसी खटपट तथा अनबन का सुन्दर सजीव चित्रण मिलता है -

बाईए दीजे - दीजे अवरे ओ सवरे सेर
बाईं नणदल रो घर टालजे
बाईए नावीड़ा री नार बजड़ गवाँर
बाईं नणदल दीदी घूघरी

एक बार मना करने पर भी नाई की गंवारु औरत ने नणदल के वहाँ जाकर आखिर लेणा दे ही दिया। नणदल के प्रति उसकी ऐसा वैमनस्यता की उसने शीघ्र ही वहां में घूघरी लाने की बात पक्की कर ली। प्रियतम -

लीड़ली सी घोड़ी पलाड़ी
बेन्यारे चाल्या ओ पामणा

रास्ते में ही बहिन मिल गई। भाई ने सारा हाल बहिन को कह सुनाया। बहिन ने कहा -

घूघरी म्हें बालूड़ा समझाय
कटाती ओ लांवा घूघरी

घूघरी तो मैंने बच्चों को खिला दी है, अब कहां से लाऊ भाई? मुझे ऐसा क्या पता था कि पीछे से ऐसी बात बनेगी। नहीं तो घूघरी का क्या माजना? अभी ही मैं घूघरी बनाकर भेजती हूँ। उसने तो नाइन के साथ भेजी परन्तु मैं तो अपने प्रियतम के साथ भेजूंगी -

वीरारे सोना केरी तोलड़ी मंगा
म्हारे राय रुपा केरी ढांकणीं
वीरारे मोत्यां केरी घूघरी रंना
म्हारे लालां केरी लापसी
वीरारे थे मोकली थारे ना वीड़ा रे
म्हूं मोकलूं म्हारा घर-धणी।

यहां कमी किस बात की है? यहां तो -

सुसरा सारे भरियारे भण्डार
म्हूं नत ही राधूं घूघरी
वीरारे थारे लागों चमची रो चून
म्हारे ओ आगा डोड़ सो

कहकर अपनी भावज को शाप रुप में ""म्हारी भावज वीजो नगरे रेगड़ी'' जैसा शाप दे बैठती है। भाई के प्रति मन में किसी भी प्रकार की कलुषित भावना नहीं है। भाई के लिए तो ""वीज्यो-वीज्यों नगरी रा राज'' जैसी मंगल कामना करती है -

"वीरारे वीज्यो-वीज्यो संमदरिया रा पाल
म्हारी भावज जल री डेढ़ की'

उसे इस बात का पश्चाताप जरुर है कि मेरी भावज ऐसी निकली है जिसने घूघरी तक वापस मंगवाई है। अन्त में वह यही कहकर अपने भाई को विदा करती है कि

""बीरारे करजो करजो नगरी रो राज
म्हारी भावज टांटे टेगड़ी''

 

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