राजस्थान

मेवाड़ में परिवार का स्वरुप

अमितेश कुमार


मेवाड़ में संपत्ति का आधार भूमि था तथा जीविका का मुख्य साधन कृषि था, जिससे प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से बंधे रहते थे। भू- आश्रित आर्थिक व्यवस्थाओं के कारण एक परिवार कई पीढियों तक श्रम- विभाजन की प्रक्रिया अपनाये हुए पैतृक संपत्ति से बंधा रहता था। यह उक्ति इस वंशानुगत अधिकारों को स्पष्ट करते हैं---

थारा बेटा, पोता, पड़पोता खाता जाज्यो
("तुम्हारे पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र भूमि का उपयोग करते रहें ) 

शिल्पी, दस्तकार एवं निम्न जातियों में परिवार की आय का मुख्य साधन यजमानी- द्रव्य रहता था। ब्राह्मण जातियों में "भामोटा' कहा जाता था। इसी प्रकार सुनार, बढ़ई, लुहार, कुम्हार, नाई आदि परिवार अपनी जीविका फसल - कटाई पर "सेरन' के रुप में लेते थे। इन सभी उपार्जनों पर व्यक्तिगत अधिकार न होकर पुरे परिवार को संयुक्त अधिकार माना जाता था। इसके अलावा व्यावसायिक जातियों के परिवारों में भी श्रम- विभाजन की आवश्यकता ने सामुदायिक जीवन की परंपरा को बनाये रखा। पंचों का एक प्रसिद्ध कथन है---

घर रा भान्डा बाजे न्हीं, एर घर रो संप बन्यो रहें 
तांई घर रा मान व्हे नी तो परायो गोल मीठों लागे, 
जग हँसाई व्हे।

लोक- भय व लाज से वृद्ध- कर्त्ता के रहते हुए युवक प्रायः अपने परिवार का फाड़ा (विभाजन) कराने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। धर्मयुक्त भावना तथा अंग्रेजों के प्रति जिम्मेदारी व्यक्ति के सम्मुख संयुक्त परिवार से विमुख होने पर धार्मिक- संकट पैदा कर देती थी। दृढ़ कुल तथा कौटुम्बिक भावना के कारण संपत्ति के बंटवारे के पश्चात भी सामाजिक दृष्टि से परिवार को संयुक्त ही माना जाता था, जहाँ घरधणी (गृह स्वामी) प्रत्येक सामाजिक व आर्थिक कार्यों पर दो से चार पीढ़ी तक कौटुम्बिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करते थे। उदाहरण के लिए आज भी भील युवक विवाह होते ही अलग टापरा (घर) बसा लेता है, किंतु सामाजिक

व्यवहारों में परिवार के मुखिया का नियंत्रण मानता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था सामाजिक नियंत्रण की लघुतम इकाई का कार्य करती थी।

सामाजिक जीवन में संयुक्त परिवार की बाहुल्यता अवश्य थी, लेकिन परिस्थितियों ने धीरे- धीरे व्यक्तिगत परिवार को भी जन्म दिया। १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आंग्ल प्रशासन द्वारा किये गये भूमि- सुधारों व न्याय व्यवस्थाओं के परिणामस्वरुप व्यक्तिवादी परिवारों का जन्म हुआ था। लेकिन इसके बावजूद भी पुत्र अपने माता- पिता व असहाय पारिवारिक सदस्यों को आर्थिक सहायता करता हुआ नैतिक कर्त्तव्य का पालन करता था। संयुक्त परिवारों से "घर- गिनती बराड़' नामक लागत ली जाती थी, वही व्यक्तिगत परिवारों को "चूल्हा- बराड़' देना पड़ता था।


पैतृक संपत्ति एवं उत्तराधिकार

वैसे तो मेवाड़ में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम प्रचलित नहीं था। प्रायः मिताक्षरा, जातिगत नियम तथा सामाजिक परंपराओं द्वारा उत्तराधिकार विवाद निश्चित किये जाते थे। मेवाड़ की प्रभु जाति राजपूतों में मनुस्मृति के अनुसार ही संपत्ति ही वास्तविक उत्तराधिकारी श्रेष्ठ पुत्र को बनाया जाता था, शेष पुत्रों को संपत्ति या जागीर का "ग्रास' (रोटी खर्च ) या भाई- भाग दिया जाता था। उसी प्रकार शासक या जागीरदारों की मृत्युपरांत बड़े पुत्र को गद्दी प्रदान की जाती थी। 

मृत कर्त्ता की विधवा का निर्वाह का उत्तरदायित्व बड़े पुत्र पर होता था। उसे प्रदान की गई संपत्ति को पुत्र- स्वीकृति के बगैर क्रय, बंधक अथवा दान नहीं कर सकती थी। मृत्युपरांत यह संपत्ति पुनः बड़े पुत्र की हो जाती थी। भरणपोषण का दायित्व दोनों सामुहिक तथा व्यक्तिगत रुप से किया जाता था। अन्य जातियों में प्रायः संपूर्ण संपत्ति का विभाजन किया जाता था। यह बँटवारा जाति पंचायतों की मदद से परस्पर सहयोग से किया जाता था। जाति- पंचायतों का निर्णय अंतिम निर्णय के रुप में व्यक्ति को मानना पड़ता था, अन्यथा उसे जाति- बहिष्कृत कर दिया जाता था। यह दण्ड "जात- भदर' कहलाता था।

उत्तराधिकार के सामाजिक- प्रमाणीकरण की प्रथा "पगड़ी- बंदी' अथवा "भाई- बाँट' के नाम से जानी जाती थी। हिंदू- समुदाय में मृत्तक- कर्त्ता की मृत्यु के १३ वें दिन, मुसलमानों में ४० वें दिन तथा आत्मवादियों में इसे तीसरे दिन ही संपन्न किया जाता था। इस पुष्टि के लिए उत्तराधिकारी संबद्ध शासक या जागीरदार को उत्तराधिकार- शुल्क का नजराना भेंट करता था तथा वह शासक या जागीरदार उसे पगड़ी बांध कर या तलवार बाँध कर संपत्ति- अधिकार की स्वीकृति देता था। कर्त्ता के नि:संतान होने पर उत्तराधिकारी का चुनाव मृतक के रक्त संबंधियों तथा समाज के मंचों द्वारा होता था। यह प्रथा "खोल- रखना' कहलाती थी।


खोल- प्रथा

वंश- वृद्धि तथा पितृ- ॠण से मुक्ति के लिए हिंदू परिवारों में पुत्र नहीं होने पर सभी जातियों में अन्य के पुत्र को गोद लेने की परंपरा विद्यमान थी। कर्त्ता अपनी जीवित अवस्था में अपने निकटतम संबंधियों में से एक गोद लेता था या फिर उसकी मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी इस अधिकार का पालन करती थी। यह प्रक्रिया जाति पंचायत एवं संबंधियों की उपस्थिति में संपन्न की जाती थी। गोद लिया गया पुत्र "धर्म का पुत्र' कहलाता था। वह वैद्य- पुत्र जैसा ही सभी वैधानिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक अधिकारों का उपभोग करता था। अब इस पुत्र को अपने औरस पिता की संपत्ति में भाग लेने का अधिकार नहीं होता था। धर्म- पुत्र लिये जाने के उपरांत अदि कर्त्ता को कोई पुत्र उत्पन्न हो जाता, तब भी धर्म- पुत्र को औरस पुत्र के समान ही संपत्ति का भाग अथवा ग्रास- प्राप्ति अधिकार रहता था। सामाजिक- प्रमाणीकरण तथा खोल- प्रथा ने प्रायः १९ वीं सदी के बाद से कई सामाजिक- राजनीतिक विवादों को जन्म दिया।

 

विषय सूची


Top

Copyright IGNCA© 2003