राजस्थान

परिवार में प्रचलित लोक संस्कार एवं विश्वास

अमितेश कुमार


मेवाड़ी समाज हमेशा से कुछ धार्मिक रुढियों तथा पारंपरिक रुचियों से बंधा रहा है, जो यहाँ सामाजिक परंपराओं के रुप में विद्यमान रहे हैं। इन संस्कारों में परिवार की निरंतर स्थिति बनाये रखने के लिए "गर्भाधान', गुणी पुत्र की कामना हेतु "पुंसवन', पुत्र प्रसन्नार्थ "सीमांतो नयन' नाम प्राग्जन्मा संस्कार थे। पुत्रोत्पति हो जाने पर पुत्र की दीर्घायु के लिए "जातकर्म', पुत्र का नाम रखने के लिए "नामकरण', जच्चा की सूतिका निवारण हेतु "निष्क्रमण', बच्चे को प्रथम बार भोजन खिलाने के लिए "अन्न प्राशन्न', कान- नाक छेदने का "कर्णवेद्य' तथा सिर के बाल साफ कराने के लिए "चूड़ाकरण' नामक संस्कार किये जाते थे। 

ये संस्कार बाल्यावस्था में संपन्न होने थे। इसके उपरांत शिक्षा हेतु "उपनयन', "वेदारंभ व "समावर्तन' के कौमार्य- संस्कार और युवाकाल में "विवाह' तथा वृद्धावस्था में अंत्येष्टी संस्कारों में "मृतिका कर्म', पिण्डदान' व "श्राद्ध' सम्मिलित होते थे। इन संस्कारों की मान्यताओं एवं पालन का मुख्य भार प्रायः दर्शन शास्रीय व्याख्या में अधिक लिप्त द्विज जातियों पर ही होता था, अर्थात् मुख्य रुप से उच्च जातियाँ ही इसमें भाग लेती थी।

वैसे आलोच्यकाल आते- आते सभी संस्कारों का विधिपूर्वक पालन नहीं किया जाता था, लेकिन इसका वैदिक स्वरुप भी धार्मिक प्रथाओं का रुप ले चुका था।

बच्चे का जन्म

स्री के प्रथम गर्भाधारण- उत्सव परिवार में मांगलिक उल्लास के साथ मनाया जाता था। गर्भ के सातवें माह में घर की वृद्धा द्वारा गर्भिणी की खोल (गोद) भरी जाती थी। इस प्रथा को "अगरणी' के रुप में जाना जाता था।

इस संस्कार पर आर्थिक स्थिति के अनुसार उत्सव आयोजित किये जाते थे। जहाँ समृद्ध परिवार अपने सगे- संबंधियों को भोज के लिए आमंत्रित करते थे, वही साधारण और विपन्न परिवार अपने संबंधियों को गुड़- धाणी बांट कर प्रसन्नता व्यक्त करते थे। इस संस्कार के बाद किसी शुभ- मुहूर्त पर गर्भिणी को पितृ- गृह भेज दिया जाता था। पुत्र प्राप्ति होने पर स्री की पारिवारिक- सामाजिक प्रतिष्ठा का स्तर बढ़ जाता था। सगे- संबंधियों को बधावणी (बधाई) भेजी जाती थी। कुटुम्बियों के घरों पर आम्र- पत्र की बंदनवार बांधी जाती थी। इस कार्य को संपन्न कराने वाली नाइन एवं मालिन को पहनने का वस्र तथा धान्य दिया जाता था।

संपन्न वर्ग के परिवार इस अवसर पर प्रीतिभोग और दान- पुण्य करते थे तथा नवजात शिशु को चाँदी के चम्मच से शहद दिया जाता था। विपन्न घरों में कांसे की थाली बजाई जाती थी तथा संबंधियों को गुण- धाणी बाँटी जाती थी तथा घर की किसी वृद्धा द्वारा शिशु- मुख में "जन्मघुट्टी' डालकर जात कर्म नामक इस प्रथा का निर्वाह किया जाता था। शिशु-जन्म के छठे दिन "छठी- पूजन' के रुप में विधाता की अर्चना की जाती थी। ऐसा विश्वास था कि इसी दिन भाग्य देवता ब्रह्मा शिशु का भविष्य निर्धारित करते हैं। उन्हीं के प्रसन्नार्थ जच्चा कक्ष की दिवार पर उनका भित्तिचित्र बनाकर उनके सम्मुख रात भर घी या तेल का तेल का दीपक जलाया जाता था। अर्चनार्थ रखे धान और गुड़ को प्रायः प्रसूतिकर्त्ता नाइन ले जाती थी। दीपक का काजल जच्चा तथा बच्चा की आँखों में लगाया जाता था। 

यह विधि आज भी प्रचलन में है। इसके चार दिनों के बाद"सूरज- पूजन' का संस्कार किया जाता था। इस अवसर पर बच्चे की बुआ, बच्चे को वस्र व आर्थिक स्थिति के अनुसार आभूषण देती थी। साधारण परिवार में बुआ केवल "जगल्या टोपी' मध्यम वर्गीय,गोटे किनारी वाले जगल्या तथा उच्चस्तरीय परिवार में कोर- किनारी लगे जगल्या के साथ चाँदी निर्मित कंठ "हालरी', कटि का कंदोरा और हस्त कंगन "कड़ा' आदि लाती थीं। इस प्रथा को ढ़ूढ़ कहा जाता था। इसी प्रकार होली उत्सव के दूसरे दिन जाति सदस्यों द्वारा सामुहिक रुप से नवजात शिशु के परिवार के यहाँ ढ़ूढ आयोजित की जाती थी। इसे "होली का ढ़ूढ़' कहा जाता था। इस अवसर पर नवजात शिशु को आशीर्वाद के लिए जाति पंचों के मध्य लाया जाता था। प्रतिष्ठातानुसार जलपान कराया जाता था। इसे "होली का ढ़ूढ़' कहा जाता है। इस परंपरा का उद्देश्य संभवतः जाति द्वारा शिशु को जाति- सदस्य के रुप में पंजीकृत कराना रहा था।

"नामाकरण' की कोई निश्चित मान्यता नहीं थी। उनका नाम कोई भी प्रचलित नाम, देवरों द्वारा दिये गये नाम अथवा जन्म के दिवस या माह के अनुसार रख दिया जाता था।

बच्चे की उम्र के सवा महीने से डेढ़ महीने के बीच किसी निश्चित तिथि को जच्चा को स्नान कराने के बाद घर की स्रियां मंगलगान करती हुई, किसी कर या तालाब पर ले जाती थी। वहाँ जल में पकाये गये धान (बाकला) को जल में विसर्जित कर कूप- पूजन की जाती थी। इस प्रथा को "भरमा- पूजन' के नाम से जाना जाता था। इसका उद्देश्य बच्चे तथा जच्चे की मंगलकामना करना था, साथ ही प्रसव- विश्राव के बाद जच्चे को घर के साधारण- कार्यों को करने की औपचारिक रुप से पारिवारिक स्वीकृति मिल जाती थी। 

अन्नप्राशन- संस्कार का प्रचलन कम था। यह सिर्फ द्विज जातियों में ही किया जाता था। इस प्रथा के अंतर्गत, दांत आने की उम्र में नवजात शिशु को दूध और चावल की क्षीर बनाकर मुंह जूठा कराया जाता था। इसे "बोटन' के नाम से जाना जाता था। झडूल्या उतारने या चग लेने की प्रथा प्रायः प्रत्येक जाति के लोगों में प्रचलित थी।

बच्चे की उम्र के ३ से ७ वर्ष के बीच सर के बाल साफ कराने का रिवाज था। यह चूड़ा- कर्म संस्कार का ही प्रतिरुप था। मन्नतों से जन्मे बच्चे की "बोलमां' के अनुसार उत्सव के साथ किसी देवरों या धार्मिक स्थान पर बाल साफ किये जाते थे। इन बालों का नदी या पवित्र तालाब में विसर्जन कर दिया जाता था। बाल काटने वाले नाई को मजमानी (मेहमानी) दी जाती थी। इसी उम्र में नाक- कान छिदवाकर कर्णवेध संस्कार भी पूरा किया जाता था। कुछ विद्धानों के अनुसार इसका उद्देश्य अलंकरण मात्र नहीं था, बल्कि यह चिकित्सा के रुप में अण्डकोष तथा आंत्रवृद्धि आदि से भी रक्षा करता है। इस कर्म के लिए सुनार को नारियल तथा गुड़ का पारिश्रमिक दिया जाता था। 

उपनयन संस्कार का प्रावधान सिर्फ द्विज जातियों में ही था। यज्ञोपवित् धारण करने के बाद खान- पान शुद्धाशुद्ध के निषेधों का पालन करना पड़ता था। राजपूत एवं वैष्णव महाजन जातियाँ हिंदू परंपरा का निर्वाह करते हुए जनेऊ धारण करती थी। 

वैदिक शिक्षाभाव तथा ब्राह्मण जातियों में अशिक्षा के कारण प्रायः गायत्रीमंत्रोपदेश दिया जाता था। " भिक्षाचरण' की प्रथा में ब्राह्मण ब्रम्हचारी अपने संबंधियों से भिक्षा मांग कर, लंगोटी बांध कर नंगे पाँप काशी के लिए कुछ दूर दौड़ने का अभिनय करते थे, जहाँ उसके मामा उसे पकड़कर समावर्त्तन परंपरा के अनुरुप नये वस्र पहना कर वापस घर ये आते थे।

मुस्लिम समुदायों में भी कई परंपरागत संस्कार विद्यमान थे, जिनमें बिरध, अकीका, नमक चाशी, खतना और हामदा प्रमुख थे।

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विवाह एवं विवाह आचार

"विवाह' संस्कार व्यक्ति का सामाजिक और धार्मिक दायित्व माना जाता था। विवाह व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होकर, परिवार के दायित्वों व नैतिक कर्त्तव्यों की पूर्ति करने के लिए ही किये जाते थे। यहाँ भी लोगों की मान्यता थी कि विधिपूर्वक किये गये विवाहोत्पन्न पुत्र अपने माता- पिता को नमकगामी होने से बचाता है।

इस संस्कार का प्रारंभ सगाई या सगपन प्रथा द्वारा किया जाता था। सबसे पहले कन्या का परिवार अच्छा वर ढ़ूढ़ने के लिए गृह- स्वामी, गृह- पुरोहित अथवा चारण- भाट को देशाटन के लिए भेजता था। दोनों परिवार परस्पर सामाजिक- आर्थिक प्रतिष्ठा व सम्मान का अंकन करते थे। वर प्राप्ति के बाद ग्रह- नक्षत्र पर विचार होता था। प्रायः ज्योतिष- स्वीकृति के बाद ही टीका- दस्तूर (सगाई) होता था। चूंकि कन्या पक्ष अपने से उच्च व प्रतिष्ठित परिवार में विवाह की लालसा रखते थे। इस होड़ ने दहेज की परंपरा को जन्म दिया, जिसका पूरा प्रभाव १९ वीं शताब्दी के आते- आते पूरे मेवाड़ के जन- जीवन पर पड़ने लगा। 

प्रायः राजपूतों में कन्या वध की अमानवीय परंपरा का जन्म हुआ। चूँकि ब्राह्मण में कन्या विवाह का उद्देश्य कन्यादान माना जाता था, अतः कन्या नहीं होने की स्थिति में धर्म- कन्या गोद लेकर भी कन्या- विवाह कराये जाने का प्रचलन था।

सगपन- प्रथा का अधिक प्रचलन द्विज व निम्न जातियों में तो था, परंतु भील, ग्रासिया और मीणा जैसी जातियाँ स्वच्छंद रुप से अपने जीवन साथी का निर्वाचन करती थी।

विवाह प्रायः एक ही गोत्र, शाखा अथवा खांप में निषिद्ध थे। राजपूतों में शादियाँ प्रायः उच्चोच्य वंश परंपरा के अनुसार होता था। सूर्य वंश की कन्या का विवाह केवल सूर्यवंश में, चंद्रवंश की कन्या का विवाह सूर्य और चंद्र वंश में तथा अग्निवंश की कन्या का विवाह तीनों ही वंशों में हो सकता था। दूसरी तरफ अग्निवंश के पुरुष का केवल अग्निवंश में, चंद्रवंश के पुरुष का विवाह केवल चंद्र तथा अग्निवंश में तथा सूर्यवंश के पुरुष का विवाह तीनों वंश में हो सकता था। बहिर्कुल विवाह की राजपूती- परंपरा ने बहिगार्ंव विवाह की परंपरा को जन्म दिया। भू- अनुदान की आर्थिक व्यवस्था होने के कारण जब एक ही परिवार विकसित होकर एक गाँव का

रुप धारण कर लेती थी, तब ऐसा करना हमेशा बाध्यता बन जाती थी। निम्न जातियों में बहिर्शाखा विवाह का प्रचलन रहा था।

सगपन के बाद विवाह का मुहूर्त निश्चित किया जाता था। यातायात में असुविधा तथा कृषि संबंधी व्यवस्था को ध्यान में रखकर प्रायः विवाह की तिथियाँ वर्षाकाल में नहीं रखी जाती थी। अधिकतर मुहूर्त चैत्र, वैशाख, मृगषर तथा माघ के महीने में होते थ। राजपूतों में जन्माष्टमी, बसंतपंचमी तथा अक्षयतृतीय के दिनों के लिए मुहूर्त की आवश्यकता नहीं मानी जाती थी। फसल के तैयार हो जाने पर विवाहोत्सव का खर्च आसान हो जाता था।

विवाह मुहूर्त के निश्चित हो जाने के बाद पीली- चिट्ठी नामक लग्न पत्रिका वर पक्ष के घर भेजी जाती थी। व्यक्तिगत निमंत्रण के लिए रिश्तेदारों के पास परिवार के सदस्य को जाना होता है। पितृपक्ष द्वारा लाई गई पहिरावणी का विवाहपूर्ण निमंत्रण के लिए वर तथा वधु की माताएँ अपने पितृ- गृह "बत्तीसी' ले जाती थी। एक ही गाँव के अपने जाति सदस्यों और संबंधियों को आमंत्रित करने के लिए जाति के मुखिया या परिवार के प्रमुख के नाम ही सभी को निमंत्रण दे दिया जाता था। ऐसे सामुदायिक आमंत्रण- पत्र को कुंकुंम- पत्रिका कहते है। 

विवाह- तिथि से कुछ दिन पूर्व गणपति स्थापना के बाद वर- वधू को जाति- परिवारों द्वारा भोज निमित्त "बंदौला' दिया जाता है। उस दिन से विवाह तक मांड्या (विवाह) के घर जाति की स्रियाँ मंगल-गान करती थी। वर तथा वधू के ननिहाल से पहिरावणी या मायरा के रुप में मांड्या- परिवार के लिए वस्र व आभूषण आते हैं। आर्थिक स्थिति व प्रतिष्ठा के अनुसार वर के साथ वधू के घर बारात के लिए प्रस्थान किया जाता था। यहाँ तोरण मारने, त्याग बाँटने तथा सप्तसदी की परंपरा का निर्वाह करते हुए विवाह संपन्न होता था। 

विवाह के पश्चात् वर- वधू को जनवास ले जाया जाता था। वधू को पुनः वधू- गृह ले आया जाता था। दूसरे दिन प्रातः बींद- सिरावणी (कुँवर- कलेवा) तथा सायं बड़ा भोज दिया जाता था। तृतीय दिन कुल देवता पूजन, रोड़ी- पूजन तथा कई स्वागत कार्यक्रम चलते थे। चौथे दिन बारात विदा होती थी। विदाई से पूर्व जाति- पंचायत के समक्ष ही राजपूतों में जुहारी तथा ब्राह्मणों में अमठूणी के रुप में डायचा (दहेज) सामाजिक प्रदर्शन कर दिया जाता था। साथ ही जाति- पंचायत को सामाजिक नेग व दस्तुर लिये- दिये जाते थे। 

वापस लौटते समय बारात रास्ते में बींद गोठ करती थी। घर पहूँचने पर वर - वधू का स्वागत किया जाता था तथा सायंकाल में जाति भोज का इंतजाम रहता था। अंत में विवाह-

उत्थापन के अवसर पर आमंत्रित सगे- संबंधियों को साड़ी- पाग पहनाकर विदा किया जाता था। मिला- जुलाकर विवाहोपचार की क्रिया बहुत खर्चीली हो जाती थी तथा परिवार की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन हो जाता था।

संतानोत्पत्ति करना विवाह का मुख्य सामाजिक- धार्मिक लक्ष्य था। गर्भाधान संस्कार, जिसमें संतान- प्राप्ति की कामना की जाती है, मेवाड़ में बदूरात प्रथा के रुप में जानी जाती है। इस प्रथा का पालन अलग- अलग जाति के परिवारों में अलग- अलग मान्यताओं के अनुसार किया जाता था। बाल- विवाह की स्थिति में इसका निर्वाह स्रियों द्वारा रातिजगा (रात्रि- जागरण) और गीत- नाद के साथ संपन्न कर लिया जाता था। वयस्क विवाहिता के विवाहोपरांत दो- तीन वर्षों तक संतानोत्पत्ति नहीं होने पर उसे "बांझ' स्री की संज्ञा से संबोधित किया जाता था। परिवार तथा समाज में उनका सम्मान कम था। संतान प्राप्ति की अभिलाषा से वे कई अंधविश्वसों का शिकार हो जाती थी। द्विज जातियों के अतिरिक्त अन्य जातियों में इससे वैवाहिक संबंध- विच्छेद भी हो जाते थे। इस संबंध- विच्छेद को लुगड़ा (साड़ी) फाड़ना कहा जाता था।

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नाता और दापा प्रथा

निम्न जातियों में पति के मृत्योपरांत या जीवितावस्था में स्री पुनर्विवाह कर सकती थी। इस पुनर्विवाह की प्रथा को "नाता' कहा जाता था। कृषक तथा पशुपालक जातियों में स्री प्रथम पति का गृहत्याग कर इच्छित पति के घर जाकर रहने लगती थी। प्रथम पति "लुगड़ा- फाड़' के लिए जाति पंचायत के साक्ष्य में नये पति से धनादि ले- देकर समझौता कर लेता था। पति के मृत्योपरांत उसका विधवा रहना या पूनर्विवाह करना उसकी इच्छा पर निर्भर रहता था। नवपति के घर चले जाने पर पूर्व पति- गृह से उसका सामाजिक- आर्थिक संबंध समाप्त हो जाता था।

इसी प्रकार घुमक्कड़, लोकानुरंजन व आदिवासी जातियों में पूनर्विवाह होते थे, किंतु वधू- मूल्य के रुप में दापा प्रथा विद्यमान थी। दापा की कूंत (मूल्य) का कुछ भाग कन्या के पिता तथा कुछ भाग परित्याक्त परिवार को मिलता था। बड़े भाई की मृत्योपरांत छोटा भाई भी उसकी पत्नी को अपनी पत्नी के रुप में रख सकता था, लेकिन बड़े- भाई को ऐसा करने पर सामाजिक प्रतिबंध था। दहेज अथवा दापा नहीं जुटा पाने की अवस्था में निर्धन परिवारों में विवाह- आवश्यकता की पूर्ति आटा- साटा प्रथा (विवाह विनिमय) द्वारा होता है।

विवाह के अतिरिक्त, द्विज जातियों में दापा कभी- कभी सगाई के समय में भी लेने का प्रचलन था। यह प्रथा सिर्फ उन्हीं जातियों में थी, जिसमें कन्या की संख्या कम थी।

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विवाह पर सामंती लाग

विवाह के अवसर पर जातिगत भोज की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए गाँव के जागीरदार को "परुसा' भेजना पड़ता था। उन्हें कन्या विवाह में ब्याव चंवरी तथा वर- विवाह पर "पगेलागणी' की लागत लगती थी। पहले यह जागीरदार के प्रति प्रेम व आदर व्यक्त करने के लिए दिया जाता था, जो धीरे- धीरे विकृत होकर अनिवार्य सामाजिक शुल्क हो गया।

राज्य की ओर से भी कई जातिगत नियंत्रण थी। द्विज जातियों के लिए शक्कर युक्त गेहूँ घी तथा तेल का भोजन, कृषक तथा शिल्पियों के लिए गुड़ का भोजन तथा निम्न जातियों के लिए निश्चित मात्रा में गुड़ के भोजन का प्रावधान किया गया था। द्विज तथा अभिजात वर्गों को छोड़कर अन्य लोगों को विवाहोत्सव पर घोड़े पर बैठने, स्वर्ण- रजक आभूषण तथा अच्छे वस्रों के प्रयोग का जातिगत बंधन था। इसी प्रकार ढोल, अड़बी- ताशा (साज) , भगतण (नर्तकियाँ) आदि पर भी वर्गगत प्रतिबंध था। इस निर्देशों का पालन नहीं होने पर कठोर दण्ड दिया जाता था।

अभिजात वर्ग के ठिकानों के ठाकुरों को बहु- विवाह करने पर प्रत्येक विवाह के लिए राज्याज्ञा लेनी पड़ती थी। इसका उद्देश्य सामाजिक पद एवं प्रतिष्ठा के अंतर को बनाये रखना था।

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अन्त्येष्ठी - संस्कार

हिंदू परंपरा के अनुसार आत्मा की शान्ति के लिए अन्त्येष्टी संस्कार का मेवाड़ी समाज में अपना महत्व है। हिंदू लोग आत्मा को सद्गति में ले जाने के लिए स्वयं अपनी जीवित अवस्था में अथवा मृत्योपरांत पुत्र द्वारा मृतक- संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का पालन नहीं करने पर व्यक्ति या परिवार पर समाज का दवाब रहता था। मृत्युगामी व्यक्ति "मृत्यु- सुधारने' के लिए अपनी आर्थिक अवस्थानुसार दान- पुण्य का कार्य करता था। मृत्यु समय समीप होने पर व्यक्ति को पलंग से उतारकर गोबर- पुते फर्श पर सुलाया जाता था। गीता- रामायण का पाठ सुनाते हुए मुख में गंगाजल या तुलसी पत्र डाला जाता था। साथ ही शास्रोक्त दस दान- गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घृत, वस्र, धान्य, गुड़, रजत व नमक का आर्थिक स्थितिनुसार संकल्पना की जाती थी। गौ द्वारा परलोक की वैतरणी- नदी को पार कराने के कारण गौ- दान का विशेष महत्व था।

अभिजात वर्ण का श्मशान "महासत्या' कहलाता था तथा साधारण वर्ग के श्मशान को "सत्या' कहते थे। मृत्यु के पश्चात् मृतक शरीर को अवस्था या मान्यतानुसार जलाया अथवा गाड़ा जाता था। प्रायः बालक व सन्तों को उनके निष्पाप एवं निष्कलंक होने के कारण जलाने की जगह गाड़ने का प्रचलन था।

समृद्ध परिवार मृतक की अर्थी के साथ रुपया- पैसा, मोती, कौड़ियाँ तथा अन्न उछालने थे। इस "बखेरने' को शुद्र जातियाँ लूटती थी। अभिजात वर्ग की चिता की लकड़ियाँ चंदन की होती थी, वहीं साधारण वर्ग के मृतकों को जलाने के लिए खेर- घावड़ा वृक्ष की लकड़ियों का प्रयोग किया जाता था। दाह- क्रिया शुरु करने के पूर्व श्मशान के हरिजन- जागीरदार को "मशाना- भोम' नामक लागत चुकानी पड़ती थी। अर्द्धदाह के बाद मृतक का सिर लकड़ी से कुरेदा जाता था।

दाह क्रिया में नवीन शासक भाग नहीं लेते थे, न ही अशौच रखा जाता था। अशौच कर्म का निर्वाह राजपुरोहित के घर किया जाता था। अन्य परिवारों में प्रायः १२ दिन तक अशौच रखा जाता था। मृत्यु के तीसरे दिन अस्थियाँ एकत्रित कर किसी पवित्र नदी अथवा तालाब में प्रवाहित कर दी जाती थी। इसके ८- ९ दिन पश्चात् मृतक की तृप्ति तथा मोक्ष के लिए ब्रह्म भोज दिया जाता था, जो विकृत होकर जाति- भोज रह गया। अशौच की इस भोजन- परंपरा को करियावर वा कट्या कहा जाता था। द्विज जातियाँ शक्कर का भोजन कृषक एवं पशुपालक जातियाँ गुड़ का भोजन तथा शुद्ध मात्र मक्का की घूघरी अथवा धान की बाटी का भोजन कर सकते थे। जहाँ सुनारों को शक्कर के भोज की अनुमति थी, वहीं सुथार- लुहार गुड़ तथा अन्य मिष्ठा रहित भोज कर सकते थे।

द्विज जातियों में मृत्यू के दसवें दिन पिण्डदान किया जाता था तथा जाति- जनों के बीच केश- मुण्डन होता था, जिसे वे "भदर' होना कहते थे। मृतक पितृ- श्रेणी में गिना जाने लगता है। इसी दिन मृतक की विधवा को वैधव्य धारण कराया जाता था। ग्यारहवें दिन जाति को एकादशी भोज तथा बारहवें दिन आर्थिक स्थितिनुसार जाति चोखला, बावनी, न्यात (पुरी जाति) को भोजन कराया जाता था। तेरहवें दिन समाज उत्तराधिकारियों को पगड़ी बांध कर सामाजिक प्रमाणीकरण करता था। वैसा उत्तराधिकारी जो राज्य- प्रशासन से संबद्ध होता था, की पगड़ी राज्य की ओर से आती थी। आत्मा की पूर्ण सद्गति के लिए एक वर्ष के बाद श्राद्धकर्म किया जाता था। सम्पन्न वर्ग इसे किसी तीर्थ स्थान पर उस समय या भविष्य में तीर्थयात्रा के दौरान पूर्ण कर लेते थे। 

राज्य के अधिकारी तथा कृपापात्रों को मृत्यू- भोज का खर्च राज्य की तरफ से मिलता था। दूसरी तरफ साधारण जनता सामाजिक दबाव तथा लोकलाज के कारण अपनी संपत्ति को भी बंधक बना कर अंत्येष्टी संस्कार संपादित करती थी। 

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सती प्रथा

मृतक व्यक्ति उपपत्नियों की सं.

पत्नियों की संख्या

सती पत्नियों की सं. 

सती 

राणा अमरसिंह द्वितीय

राणा संग्रामसिंह द्वितीय

१६ १२

राणा जगतसिंह द्वितीय

१६

राणा राजसिंह द्वितीय

११

राणा अरिसिंह 

८ (५ जीवित रहते हुए मृत)

राणा हम्मीरसिंह द्वितीय

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राणा भीमसिंह

राणा जवानसिंह

राणा सरदारसिंह

राणा स्वरुपसिंह

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