राजस्थान

मेवाड़ में प्रचलित श्रृंगार व आभूषण

अमितेश कुमार


मेवाड़ में श्रृंगार तथा आभूषणों का प्रयोग स्री और पुरुषों में समान रुप से प्रचलित था। सौदर्य - प्रसाधनों के रुप में विभिन्न तरह की सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। तत्कालीन साहित्यिक स्रोत के अनुसार गुलाब और चंदन के इत्र ज्यादा प्रचलन में थे। स्नान, उबटन और लय के रुप में केसर, कुमकुम और अरगजा का प्रयोग किया जाता था। चांदणी, चमेली और चंदन के तेल के प्रयोग ज्यादातर धनिक वर्ण के लोग करते थे।


स्रियाँ कलात्मक फुंदनों और फूलों से वेणी गूंथती थी। काजल तथा सुरमा का अंजन तथा माथे पर कुमकुम के टीके का प्रचलन सभी वर्ग की स्रियों में था। मेंहदी का प्रयोग स्री तथा पुरुष दोनों वर्ग के लोग करते थे। मेंहदी का प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छा माना जाता था। पुरुषों में बढ़े हुए बाल, दाढ़ी और मूंछे रखना पौरुष का प्रतीक माना जाता था। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश प्रभाव से दाढ़ी के स्थान पर गलमुच्छें रखने का प्रचलन बढ़ने लगा। सिर के बाल साफ रखने तथा दाढ़ी- मूंछ नहीं रखने का भी प्रचलन शुरु हो गया।

आभूषणों में स्वर्ण, रजत, मोती, पन्ना, हीरा, माणिक, पीतल, कांसा, हाथीदांत, लाख तथा नारियल के खोपरे का प्रयोग होता था। इनका प्रयोग सामाजिक- आर्थिक प्रतिष्ठा, पद, सम्मान तथा जातिगत नियमों के अनुसार ही किया जा सकता था। कई बार जातिगत नियमों के अनुसार आभूषणों की किस्में भी निर्धारित की जाती थी। इन सामाजिक नियमों की परंपरा का पालन अध्ययनकाल के अंत तक होता रहा। 

रत्नजड़ित, मूल्यवान आभूषणों का प्रयोग अभिजात व समृद्ध वर्ग के लोगों तक सीमित था। स्वर्ण पहनने का सम्मान महाराणा द्वारा प्रदान किया जाता था। द्विज जातियाँ चाँदी, हाथीदाँत तथा लाख के आभूषणों का प्रयोग करती थी, वही निम्न जातियों में चाँदी, पीतल, कांसा, लाख तथा नारियल के आभूषण पहने जाते थे। दलित व आदिवासी वर्ग सिर्फ कांसा, कतीर तथा नारियल के आभूषणों का प्रयोग कर सकते थे।


 

 

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