राजस्थान

 

मारवाड़ के पारंपरिक शकुन

प्रेम कुमार


अक्षर तृतीया के शकुन
मकर - संक्रांति के शकुन
होली के शकुन
दीपावली के शकुन
पशु- पक्षियों द्वारा शकुन विचार
कौवे से संबंद्ध शकुन
उल्लू से संबद्ध शकुन
भ्रमर रा शकुन
तीतर रा शकुन
सुगनचिड़ी से संबद्ध शकुन
अन्य पक्षियों से संबद्ध शकुन
पशुओं से संबद्ध शकुन
लाल चींटी से संबद्ध शकुन
वर्षा व अकाल संबंधी शकुन
यात्रा संबंधी शकुन
"सुकमावली' नामक ग्रंथ के अनुसार
छींक संबंधी शकुन
अंग- फड़कन संबंधी शकुन
"अंग फुरकण विचार' नामक ग्रंथ के अनुसार
स्वरोदय द्वारा शकुन निर्णय
चंद्र स्वर में किये जाने वाले कार्य इस प्रकार है
सूरज के स्वर में इस तरह के कार्य करने शुभ माने जाते हैं
सूर्य व चंद्रग्रहण संबंधी शकुन
नक्षत्र आधारित शकुन
समाज में प्रचलित कुछ अन्य शकुन- अपशकुन

शकुन (संवण) का मध्यकालीन मारवाड़ के सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्व रहा है। व्यापक पैमाने पर प्रभाव डालने वाले शकुन, जो किसी भी प्राकृतिक आपदा के रुप में हो सकता है, का निर्धारण कुछ विशेष तिथियों, जैसे अक्षयतृतीया, मकर- संक्रांति, होली, दीपावली आदि शुभ अवसरों पर अनुभवी शकुनियों द्वारा किया रहा है। ये अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं। इन शकुनों का ज्ञान प्रायः सभी सामान्य जनों को था। रोजमर्रा की जिंदगी में उसका पालन करना आम बात थी। प्रत्येक शुभ कार्य के लिए अच्छे शकुन अपेक्षित रहे हैं।

राजस्थानी साहित्य में, शकुन विषय पर गद्य और पद्य, प्रबंध एवं मुक्त दोनों ही विद्याओं में लिखी गई है। शकुन साहित्य राजस्थानी संस्कृति की अमूल्य निधि माना जाता रहा है। राव मालदेव द्वारा रचित ""शकुनाशास्र'' इनमें से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इनमें विभिन्न परिस्थितियों में कई प्रकार के शकुन का सविस्तार उल्लेख किया गया है। इसमें वर्णित शकुन संबंधी कई मान्यताएँ आज भी मारवाड़ की ग्रामीण जनता में प्रचलित है। शकुनों को वे पूर्वजों के गहन चिंतन मौलिक मनन व अतीत की अनुभूति मानते हैं। लोगों पर शकुनों के प्रति विशेष आस्था शकुनों के सामाजिक महत्व को दर्शाता है।

मध्यकालीन मारवाड़ में शकुन ज्ञात करने के विभिन्न तरीके थे। कुछ महत्वपूर्ण तिथियों के आधार पर निर्धारित होते थे, तो कुछ विभिन्न पशु- पक्षियों द्वारा निर्धारित किया जाता था। ऐसे तरीके सरल व अनुभव पर आधारित थे। कुछ शकुनों का निर्धारण जटिल गणितीय अंकों के आधार पर किया जाता है। ऐसे शकुन ""पासा केवली'' के नाम से जाने जाते थे। किसी भी नये या शुभ कार्य के लिए प्रस्थान करते समय, जो मूहुर्त देखा जाता था, उसमें वार, नक्षत्र, तिथि, योग सभी का ध्यान रखा जाता था। सातों वारों के शकुन पर विस्तार से विवेचन हुआ है, जिसका उल्लेख ""सात वार विचार'' नामक ग्रंथ में मिलता है।

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अक्षर तृतीया के शकुन

अक्षय तृतीया (आरवातीज) को वर्ष भर के फलाफल, सुकाल- दुकाल संबंधी शकुन लेने की परंपरा रही है। गाँवों में अक्षय तृतीया के दिन या अमावस्या से तीन दिन तक अनुभवी शकुनी, शकुन विचारते हैं। इसी विशेष दिन ये शकुनी गाँव के मुखिया के सामने अपने शकुनों का निर्णय सुनाते हैं। कई बार शकुनियों में आपसी मतभेद भी होता है।

इस दिन हवा के बहाव तथा मध्याह्म के समय थाली में पानी भर कर सूर्य की परछाई देखकर शकुन ज्ञात किये जाते थे। शकुनों के आधार पर घोषणा की जाती है कि "चौमासे' के किस मास में वर्षा अधिक होगा तथा किसानों को कौन- सा धान बोना लाभप्रद होगा। सूर्य की परछाई के आधार पर बताये गये शकुन कुछ इस प्रकार है --

""आरवात्रीज दिनै मध्यान समयै थाली पांणी सूं भर नै
सूरज मांहै जोइजै जिण दिस सूर्य रातो दिसै तो
तिण दिसै दिस विग्रह, सूरज नीलो, पीलो दीसै तो
धरती मांहे मांदवाड़ करवरो होई। रसकस मुंहगा।।
धवलो दिसै तो धांन घणा होइ, सुकार मेह घणा
परजा सुखी। धुधलौ दीसै तो अन सुगाल, काइंक
वाजै वाइ। राजवीहीयो दीसै तो तीड आवै।
स्याम दीसै तो दुरभख होइ।

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मकर - संक्रांति के शकुन

मकर-संक्रांति के पश्चात पाँचवें, सातवें, नौवें और बीसवें दिन शुभ कार्य, जैसे सगाई करना, घर की नींव डालना आदि वर्जित है।

होली के शकुन

होली जलाते समय चलने वाली हवा के आधार पर भी शकुन ज्ञात किये जाते थे। इससे संबंधित कुछ दोहे यहाँ दिये जा रहे हैं --

पूर्व वाय वहंतो जोय, तिडी मुसा नहचे होय।
अगन कूण रो वाजे वाय, लाय चालौ का लट खाय।।
दीखण वाय वहै असराल, तौ तुं जांणै नहचै काल।
नैरत कुण ऐ जो हुवै पवन, देस विधावि निपजै कण।।
उतर वाय वहतौ जोय, परजा दुख न देखे कोय।
भलो पवन जांणे इंसाण, घर घर मंगल होय कल्याण।।

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दीपावली के शकुन

दीपावली के पर्व पर कवड़ीया के शकुन लिये जाते थे। इस दिन यदि कवड़ीया कमल के फूल, घर, हाथी, घोड़ा, फले-फूले वृक्ष पर दिखाई पड़ता है, तो शुभ माना जाता है, परंतु यदि राख, हड्डी, चमड़ी, काष्ठ, सूखे तिनकों के ऊपर दिखाई पड़ता है, तो अशुभ माना जाता है। उस वर्ष अच्छे फसल की उम्मीद नहीं की जाती।

इस मौके पर विभिन्न पशु-पक्षियों के शकुन का भी प्रचलन रहा है।

पशु-पक्षियों द्वारा शकुन विचार

मध्यकालीन मारवाड़ के निवासी विभिन्न पशु- पक्षियों द्वारा शुभ और अशुभ शकुनों को निर्धारित करते थे।

कौवे से संबंद्ध शकुन

-- कौआ अगर अपना घोंसला, वृक्ष पर उत्तर तथा पूर्वी दिशा की डाली पर बनाता है, तो इसका तात्पर्य था कि बहुत अच्छी वर्षा होगी। पैदावार बढ़ेगा तथा लोग निरोग व कुशल रहेंगे।

-- वृक्ष पर अग्निकोण व ईसान कोण में घोंसला डालने पर दूर्भिक्ष, दक्षिण की तरफ घोंसला बनाने पर पृथ्वी पर हाहाकार व दुर्भिक्ष, नैॠत्य कोण में सुनिप्र तथा पश्चिम की तरफ बनाने पर, थोड़ी वर्षा तथा कम पैदावार होती है।

-- वृक्ष की ऊपरी शिखा पर घोंसला बनने पर सुभिक्ष, अधबिच की डाली पर बनने से वर्षा के तथा पैदावार की कमी मानी जाती है।

-- छोटी खेजड़ी (शमी वृक्ष) पर बना कौवे का घोसला, देश में उत्कापात, महामारी व चोरों के उत्पात की ओर इशारा करता है।

-- सूखे वृक्ष पर बना कौवे का घोसला राजविग्रह, दुर्भिक्ष तथा महाअनिष्ट का परिचायक है। 

-- सूने घर, मंदिर व पर्वत शिखर पर बना घोंसला राज्य- विग्रह का सूचक है।

-- कागभाला विचार के अनुसार ""जो काग मनुष्य रा माथा ऊपरे बैसे तो छ मास मांहे मरण कहै अथवा छः महीना रो आउषो घटे अथवा अनर्थ उपजावे।

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उल्लू से संबद्ध शकुन

-- गाँव के लिए प्रस्थान करते समय, यदि बांयी तरफ उल्लू बोले, तो आनंदवर्द्धक व सुखकारी माना जाता है, परंतु यदि यह दांयी तरफ अथवा सामने बोले तो भयकारक।

-- उल्लू का बार- बार बोलना दुखदायी माना जाता है।

-- गाँव में प्रवेश करते समय या वापिस लौटते समय, दांयी तरफ उल्लू का बोलना शुभ माना जाता है।

-- उल्लू घर के ऊपर बोले तो सात दिन में स्री को कष्ट, धन हानि अथवा चोरी का भय स्पष्ट होता है।

-- घर ऊपरे राजा बोली ने बेसै तो सुभ सुभावे भलो बोले तो लाभ करे अस्री गर्भवती होय तो पुत्र जनमें। घर ऊपरे कुरलावे तो रोगीयो हुवै तो रोग जावै अर निरोगी हुवै तो मरे। प्रसाद, गढ़, कूआ ऊपर बोले तो नगर देस छः मास मांहे उजड़ करे,

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भ्रमर रा शकुन

-- गाँव चलते समय भ्रमर बांयी ओर गुंजार करे या स्पर्श करे तो सर्वकार्य सिद्धी

-- बैठे हुए या सोते हुए शरीर के अंग पर गिरे, तो स्नान करना चाहिए, नहीं तो रोग हो सकता है। यह मृत्युकारक भी है।

-- बांयी ओर फूल पर बैठे, तो प्रत्येक कार्य में सफलता मिलती है।

-- चलते समय यदि सिर के ऊपर गुंजार करे, तो शुभ माना जाता है।

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तीतर रा शकुन

-- किसी गाँव के लिए प्रस्थान करते वक्त, यदि तीतर बाँयी तरफ से बोले, तो शुभ माना जाता है। दांयी तरफ से बोलने पर यात्रा स्थगित कर देना चाहिए।

-- अग्निकोण में चौथे पहर, यदि तीतर बोले, तो शुभ माना जाता है।

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सुगनचिड़ी से संबद्ध शकुन

-- आटो भाटो नै घी घड़ो, छुटी लटियां नार।

-- इतरै सुगनै सांचरौ, तो न दिखे घर बार।

खेत की तरफ जाते समय किसान की दाहिनी तरफ सुगनचिड़ी बोले और बांयी तरफ तीती बोले तो ये अच्छे शकुन माने जाते है। यदि वह किसान वर्ष भर के लिए किसी और मालिक का खेत जोतने जा रहा है, तो खेत में घुसते ही बांयी तरफ चिड़िया (सुगनचिड़ी) का तथा दाहिनी तरफ तीतर का बोलना शुभ माना जाता है।

"केतौ जिमावै चूरमौ, केतौ भाला सूं भरपूर'।

अर्थात यदि प्रायः ८.३० से ९.३० के बीच जाते हुए बांयी तरफ सुगनचिड़ी बोले और उसके तुरंत बाद दांयी तरफ बोले, तो जिस काम के लिए व्यक्ति जा रहा है, वह काम या तो अवश्य हो जाएगा या तो कभी नहीं होगा।

शाम को घर आते समय यदि सुगनचिड़ी दाहिनी तरफ बोले, तो यह निश्चित माना जाता है कि घर पहुँचने पर कोई मेहमान मिलेगा। ऐसे शकुन में अच्छा स्वादिष्ट भोजन मिलता है। बारिश की भी संभावना होती है।

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अन्य पक्षियों से संबद्ध शकुन

ऊँची चीलां आकास वालो, सासरे जाती धीया रोवै।
सामी बेल गंधती आवै, लंका रौ राज विभीसण पावै।।

अर्थात आकाश में ऊँची उड़ती हुई चीलें, ससुराल के लिए जा रही रोती हुई पुत्री तथा सामने बैल गाड़ी में जुते आ रहे बैल, अत्यंत शुभ शकुन के प्रतीक होते हैं।

हरे र्रूंख पर बैठी सक्ति, देवै है आसीस।
अनधन रा भंडार भरेला, व्है पौ- बारा पच्चीस।।

अर्थात हरे वृक्ष पर बैठी हुई चिड़िया, किसानों को यह आशीर्वाद देती है कि वे धन- धान्य से परिपूर्ण रहें।

गाँव में घुसते ही रात को कोचरी बांयी तरफ बोले, तो यह शांति का सूचक है। यदि वह दाहिनी तरफ से बोले, तो संभावता बढ जाती है कि किसी अत्यावश्यक कार्य से घर से पुनः प्रस्थान करना होगा।

बाड़मेर, जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी इलाकों में बच्चे को पहले गुटकी देने का पानी ऐसे बर्तन से लिया जाता है, जिसमें अधिकतर जंगली पक्षी जल पीते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस जल को पीने वाला बच्चा पक्षियों की बोली को समझेगा तथा अच्छा शकुनी होगा।

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पशुओं से संबद्ध शकुन

गाँव के प्रस्थान करते समय यदि कुत्ता दांयी या बांयी तरफ मिले, तो अशुभ होता है। यदि वह दांयी तरफ अपनी कोख चाटता, पेट चाटता, कांधा खुजलाता, हड्डी चबाता अथवा मांस लिए आता दिखाई पड़े, तो शुभकारी माना जाता है। कुत्तों के शकुन से संबद्ध दोहे इस प्रकार हैं --

""स्वान कान फड़ फड़ को, अथवा बेठो खाट।
असो देख न चालीये, आगै करै उचाट।।''

बैल बांये पाव अथवा बांये सींग से जमीन खोदता दिखाई पड़े, तो बहुत लाभकारी माना जाता है। परंतु दांये पांव या दांये सींग से जमीन खोदता दिखे, तो अशुभ माना जाता है। उसका बांयी ओर बोलना शुभ माना जाता है। गाँव में वह भैंसे के साथ चरते हुए दिखाई पड़े, तो कष्टकारी समझा जाता है।

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लाल चींटी से संबद्ध शकुन

इस संबंद्ध में उल्लेख मिलता है कि ""राती कीड़ि घर मांहि विचि नीकले तो घर उजड़ होय। अगन दिसि मांहि कीड़ि नीकले तो पीयु आपणो आवै। दक्षिण दिसि पर मांहि जो हो तो लाभ कहै। नैॠत्य दिसि घर मांहि नीकले तो पावस आवै। पश्चिम दीसि घर मांहि नीकले तो स्री लाभ कहे। वायदिसि घर मांहि नीकले तो स्री पर रत होइ। उतर दिसी राती कीड़ि घर मांहि निकले तो संपदा होइ। ईसानदिसि देह छूटे।

इसी प्रकार कई अन्य जानवर यथा घोड़ा, सियार, हरिण, भैंस, वानर, ऊँट, भेड़, धामणी, छुछूंदर, मकड़ी आदि के शकुन "सकुनभाला' में मिल जाते है। ये फुटकर व स्फुट दोहों के रुप में भी उपलब्ध है। "पक्षी शकुन विचार', "सुकनावली चक्र ३२' तथा सुकनावली ग्रंथों में बुलबुल, मोर, बत्तक, कुरज, कबूतर, कूकड़ौ, काग, नीलहास, तीतर, बाज, कमेड़ी, सूवटौ, आड आदि से संबंध शकुनों का उल्लेख है।

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वर्षा व अकाल संबंधी शकुन

-- यदि टिटहरी तालाब के बीच में जाकर अण्डे दे, तो वर्षा नहीं होती और यदि तालाब की पाल पर जाकर अण्डे दे, तो उस वर्ष वारिश अवश्य अच्छी होगी। 

-- पपैया अगर उत्तर दिशा में बोले, तो २४ घंटों में बारिश हो जाएगी।

-- यदि गाय कान फड़फड़ाये, तो तीसरे दिन बारिश होगी।

-- रात को यदि भेड़ें उठकर उत्तर दिशा की ओर चली जाएँ, तो तीसरे दिन वर्षा की संभावना होती है।

-- माना जाता है कि ऊँटनी को भविष्य का आभास हो जाता है। बरसात नजदीक होने पर वह पाँव पटकने लगती है और बैठती नहीं है।

आगम सूझै सांढणी, तोड़ै थलां अपार।
पग पटकै, बैसे नहीं, जद मेहां अणपार।।

-- यदि चलती ऊँटनी को रात के समय ऊँघ आने लगे, तब भी बरसात का होना माना जाता है।

-- कौआ यदि अपना घोंसला पेड़ के बीच के कोटर में रखे, तो यह माना जाता है कि जब तक उसके बच्चे न उड़ जाए, बारिस नहीं होगी।

-- नीम में यदि अच्छी मंजरी आये, खेजड़ी के फलियां (खोखे) खूब लगें, तो अच्छी बारिश की संभावना होती है।

-- यदि कैर अधिक मात्रा में लगें, तो अकाल सूचक मानी जाती है

-- कुम्हार जब मिट्टी के बर्तन बनाता है और बर्तन बनाते ही वायु की आर्द्रता के कारण बिखरने लगते हैं, तो तीव्र वर्षा की संभावना होती है। यदि बर्तन सुखने लगे, तो बारिश का होने की संभावना कम मानी जाती है।

बिगड़ै बासण चाक पर, माटी अधिक उबार।
आड़ंग आगम समझलै, मेहां कहै कुम्हार।।

-- चिड़िया यदि सूखी रेत में पंख फड़फड़ा कर रेत से नहाने लगे और चीटियाँ यदि अपने अंडों को लेकर जमीन से बाहर निकलने लगे, तो वायुमंडल में आर्द्रता की अधिकता के कारण वर्षा की संभावना रहती है। इसी आर्द्रता के कारण कलश का पानी गर्म रहता है।

कलसै पानी गरम होवै, चिड़िया नहावै धूड़।
ले ईंटा चींटी चढै, तो बिरखा भरपूर।।

-- इसके अलावा भी राजस्थानी साहित्य में बरसात के शकुनों के संबंध में अनेकानेक संकेत मिलते हैं --

जटा बधै बड़ री जद जांणा।
बादल, तीतर पंख बखांणा।
अवस नील रंग व्है असमांणो।
(तौ)घण बरसै घमघम जाणो।
बिरछां चढ कीर कांठ बिराजै।
स्याह सफेत लाल रंग साजै।
बिजनस पवन सूरियौ बाजै।
घड़ी पलक मांय मेही गाजै।
ऊंचाै नाग चढ़ै तर तोड़ै।
दिस पिछमांण बादल दौड़े।
सारस चढ़ असमान सजोड़ै।
तो नदियां भरपूर दोड़ै।

अर्थात् जब वट वृक्ष की जटा बढ़ने लगे, आकाश में बादल का रंग तीतर पंखी व नीला हो जाए, तो बारिश की संभावना होती है। जब गिरगिट अनेक रंगों का दिखने लगे तथा पवन सूरियों (सप्त ॠषि के अस्तस्थान पर चलने वाला वायु) चलने लगे तो क्षण- क्षण में बरसात के बादल गरजते रहते हैं। जब नाग पेड़ पर चढ़ने लगे तथा बादल पश्चिम दिशा की ओर तेजी से बढ़ने लगे तथा सारस पक्षी जोड़े बनाकर आसमान में उड़ने लगे, तब नदियों में जल भर जाता है।

बरसात के पूर्व ही, ऊमस के समय ही शकुनी बरसात संबंधी कई भविष्यवाणियाँ कर देते थे। तपन और ऊमस से कांसे के बरतनों में लगे जंग, जब देखने में आकाश के बादलों का चित्रांकन प्रतीत होता है, तो बरसात आने ही सूचना देता है। वर्षा ॠतु के छह माह पूर्व पौष से चैत्र मास के बीच आने वाले वर्ष में वर्षा कब होगी, इसका गर्भ देखा जाता है। जिस दिन आकाश में धुंध छाया हो, उस दिन "कण्डा' जलाकर उसके धुँए की दिशा के आधार पर हवा का रुख जाना जाता है। जिस दिन बादल व धुंध होती है, उसके ठीक छह माह बाद बारिश का दिन निर्धारित किया जाता है। यदि छह माह के पहले छींटे हो जाएँ, तो उस "गर्भपात' होना माना जाता है। जिस दिशा से धुंध आती है, उसी दिशा की हवा से छह मास बाद बारिश होती है, उसे "आभा गलना' (बादलों का बरसना) कहते हैं। 

विभिन्न समय में बादलों की स्थिति देखकर भी लोग वर्षा संबंधी पूर्वानुमान लगाते थे। ये अनुमान अनुभव के आधार पर जाँचे- परखे होते थे तथा उतने ही अभीष्ट होते थे।

आसाढ़ सुद नवमी, कै वादल कै वीज।
कोठ खेर खंर्खरकर, राखौ बलद नै बीज।।
चैत्र मास जो वीजल होवै, धुर वैसाखा केसू धोवे।
जेठमास जो जाइ तपंतो, कुण राखे जलहर वरसंतो।

विभिन्न जीव- जंतुओं की गतिविधियों को देखकर भी वर्षा संबंधी तथा अन्य पूर्वानुमान लगाये जाते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :-

इंडा हीटोड़ी तणा, अणी भूमि दिस होय।
जता मास सुवरसणा, कहे गमेता सोय।।
कीड़ी कणं आसाढ़ में, दर ले जाती न्हाल।
अन दुरभिख यूं जांणिये, तृणि लीयां तिण काल।
कीड़ी दर मां कण लीयां, बाहरि नांषे आंणि।
वरस भलो वरखा घणी, भीला कह्यो वखांणि।।
करै घुसाला घर विचै, चिड़िया आगम जांणि।
च्यार मास नीझर झरै, नहीं मेह की हांणि।
आगम सूझै साढ़ कू, दोड़ी थलां अपार।
पग पटके बैसे नहीं , माधव आवणहार।।
टोले मिल के कांवल्यां, आय थला बेसंत।
दिन चौथे के पाँच में, चरखा करे अनंत।।
रांभे गाय बिन बाछस, गलती मांझल रात।
ओरही उल्कापात यूं, दुरभख मरण विख्यात।।

माना जाता है कि वर्षा ॠतु में शुक्रवार को बादल हो और वे शनिवार तक रहे, तो वे बादल बरसे बिना नहीं रहते। शनिवार के दिन शुरु हुई वर्षा, सात दिन तक निरंतर बरसती रहती है। यदि सुबह में आकाश में काले बादल दिखें, दोपहर को गर्मी बढ़े और रात को स्वच्छ आकाश में तारें न आयें, तो अकाल की संभावना बनी रहती है।

परभाते गेह डंबरा, दोपारा तपंग।
रातूं तारा निरभला, चेलां करौ गछंत।।

हवा की गति को देखकर भी शकुन विचारे जाते हैं। सावन के दिनों में दक्षिण दिशा की हवा ठीक नहीं समझी जाती है। एक मान्यता के अनुसार :-

नाड़ा टांकण, बलद बिकावण।
मत बाजै तूं आधै सावण।।

यदि उत्तर व पश्चिम से हवा चले, तो अच्छी बारिश की संभावना रहती है।

सांवण मास सूरियो बाजे, भादरवै पुरवाई।
आसोजां समदरी बाजे, काती साख सवाई।।

अर्थात् यदि सावन में "सूरिया' पवन भादो में पूर्वा और आसीन में पछुवा पवन चले, तो कार्तिक मास की फसल सवाई होगी। सावन में जब किसान हल जोत रहा हो और उत्तर- पश्चिम हवाएँ चलने लगे, तो तुरंत वर्षा आने का योग बनता है।

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यात्रा संबंधी शकुन :-

किसी नये या शुभ कार्य के लिए घर से प्रस्थान करते समय, शुभ- मुहुर्त और शकुन का पूरा ध्यान रखा जाता था। शुभ मुहूर्त देखते समय वार, नक्षत्र, तिथि, योग आदि सभी का ध्यान रखा जाता था। सातों वारों का अपना महत्व था। इसका उल्लेख ""सात वार विचार'' नामक ग्रंथ में मिलता है। प्रस्थान के लिए सोम, वृहस्पति व शुक्रवार तथा अश्वनी, पुष्प, रेवती, मूल, मृगशिर, पुनर्वसु, ज्येष्ठ, अनुराधा आदि नक्षत्र शुभ माने जाते थे। चतुर्थी, नवमी, अष्टमी, चतुर्दशी व अमावस्या की तिथियाँ अशुभ व निषेधकारी मानी जाती थी। इसके अलावा माना जाता था कि मासंत, संक्राति, दिन त्रृठी तिथि, दग्धाए दिन वर्जनी बीजी तिथ सर्वभली वियोग, सिद्धयोग, सर्वक योग इत्यादिक उत्तम योग भला। यमघट, यमदाढ़, ज्वालामुखी, भद्रा, कुलिक, मृत्युयोग, कर्कयोग

इणे योगे न चालीजै।
विसासूल सन्मुख टालवौ।।

प्रातःकाल सफर के लिए प्रस्थान करने से पूर्व, यदि व्यक्ति की श्वास का दाहिना सुर चलता हो, तो उसे अवश्य प्रस्थान करना चाहिए।

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"सुकमावली' नामक ग्रंथ के अनुसार

""बालक रो सुसवत, मंगलीक सबद, छत्र चांभरा मोड़, मंस दही, सुखपाल, सरसव, वीणा, जल, कुँवारी कन्या बलद रासी बंधा दोय, गुल, अन, धुंआरहत अगन, दीवो, हाती, घोड़ो सपालणो, नगरनाय का, सदासुहागया, सुहागण अस्री, नालेर, मीयानस्मेत, हतीयार, गाडो से जुतो, पुत्र गोद में लिया अस्री, अस्री भरीये बहेडै, बाछड़ा समेत कामधेन, धोब, हलद, कुंकुम, रोटी तांबा, नांणो, रुपा नाणों, लुहार दाढ़ी वालों, सन्यासी वस्र पहिरिया, श्री ठाकुर री मूरत, भिष्टा सूं पग भरीयोर्ड़ी, उजला फूल बीजा ही मंगलीक वस्तु सांभी मीली भली।

घर से प्रस्थान करते समय होने वाले अशुभ शकुनों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है:- ""फेर घर सुं चालता वेरी सांमो भीले, तुसधांन, आटो, चूनो, कपास, भागा ठीकरा, छांणा, तेल, लौह, खांती, औजार, छुटे केसे नार, नकटो वांमणं, भैंसो, गथराड़ो, पंसारी, नायलो, रोगी, भोपो, आहेड़ी, खटीक, दुखीयोदीन, गहलौ- गूंगो, वमन करतौ, कांणौ, इंधण री भारी, वांझियो, काढियो, वासदे, ठाली, घड़ो, खंड, खल, मुंज, केस, रीतवंती अस्री, छीनाल, विधवा, वडकुंआरी, कोयला, जुआरी, गाँव चालता इतरा चोक नहीं लेणा।

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छींक संबंधी शकुन

छींक से संबंधित कई शकुनों की चर्चा विभिन्न ग्रंथों में की गई है। एक प्रचलित मान्यता है:-

छींकत खाये, छींकत पीयै, छींकत रहियै सोय।
छींकत पर घर कदै न जाये, आछी कदै न होय।

"छींक सकुन' नामक ग्रंथ के अनुसार बैठते, सोते, जीमते, द्रव्य गाड़ते, नये कपड़े पहनते छींक करने को शुभ माना जाता है। ग्राम से प्रस्थान करते समय, बांयी तरफ की छींक शुभ पीठ पीछे की छींक कार्य सिद्धि की द्योतक तथा दाहिनी ओर सामने की छींक को भयकारक और अशुभ कहा गया है। गाँव- घर में प्रवेश करते समय दाहिनी छींक शुभ मानी गई है। स्नान करते, औषधि लेते, बीज बोते, आखेट के लिए जाते, जीमने के पश्चात चलू करते समय तथा वस्र बेचने आदि अवसरों पर बांयी ओर पीठ पीछे की छींक शुभ मानी गई है। पीठ पीछे की दो छींके हमेशा अच्छी मानी जाती है।

"सकुनशास्र' नामक ग्रंथ में विभिन्न दिशाओं में छींक होने के शकुनों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :-

उत्तर छींक महा बलवंती, इंसाने धन दीयै तुरंती।
पूरब छींक महरण सनेही, अगन छींक जुर आवै देही।
दखिण छींक करै विवहारा, नैरतकुण भरै भंडारा।
पछिम छींक करै वहुहांण, वायव छींक मिलावै आंण।
आकास छींक पाव न धरणा, घर बैठा ही आनंद करणा।
छींक आरज्या घट न रती, इम भाखैं निज गोरख जती।

"छींक विचार' नामक ग्रंथ में प्रत्येक वार के अनुसार आठों दिशाओं की छींक पर विचार किया गया है तथा शुभ- अशुभ परिणामों की चर्चा की गई है।

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अंग- फड़कन संबंधी शकुन :-

शरीर के विभिन्न अंगों के फड़कने के आधार पर भी शकुन ज्ञात करने की धारणा प्रचलित रही है। प्रायः पुरुष का दाहिना अंग और स्री का बांया अंग फड़कना शुभ माना जाता है। आँखों के फड़कने संबंधी मान्यता जनसामान्य में अधिक व्याप्त थी। स्री का बांया आँख और दाहिना आँख का निचला भाग का फड़कना शुभ होता है। बाँया आँख फड़कना सुख, भोग तथा संगम का प्रतीक है तथा दाहिने आँख का निचला भाग यश, लाभ तथा सुख को बताता है, परंतु दाहिने आँख तथा बाँये आँख के निचले हिस्से का फड़कना, भय और हानि को इंगित करता है। पुरुष आँखों में इसका बिल्कुल विपरीत होता है। जहाँ दाहिना आँख तथा बांये आँख का निचला हिस्सा शुभ माना जाता है, वही बांया आँख तथा दाहिने आँख का निचला हिस्सा अशुभ माना जाता है।

सिर फड़कने पर धरती का लाभ, ललाट फड़कने पर स्थान- वृद्धि, नाक फड़कने पर मित्र- मिलन, पीठ फड़कने पर प्रिय से मिलन, पेट फड़कने पर अच्छा भोजन, गाल फड़कने पर स्री संयोग, कान फड़कने पर नयी व अच्छी बात सुनने का अवसर, ऊपर का ओठ फड़कने पर कलह, नीचे का ओठ फड़कने पर संयोग तथा पुट्ठे तथा "मुट्ठी' फड़कने पर पराजय, कंधों फड़कने पर शत्रु विजय, स्री- स्तन फड़कने पर पुरुष लाभ, हृदय फड़कने पर हानि, पाँव फड़कने पर स्थान- लाभ तथा पगलती फड़कने पर यात्रा योग होता है।

"अंग फुरकण विचार' नामक ग्रंथ के अनुसार :-ंठ

""जीवणौ हाथ फुरकै तो राज मान व्यापारे लाभ। लीखमी प्राप्त होवै। मित्र मिले, रोजगार वधै, सुख उपजै, काली जीनस से फायदौ होय, मीठौ भोजन मिलै। पग फुरकै तो वाहन मिलै। घोड़ो मिलै। उंगूठौ फुरकौ भलौ। धनलाभ, व्यापारे लाभ, आंगुली फुरकै खोटी। उदासी मिलै। काण फुरकै तो धन री हाण करै सही। हाथ री हथेली फुरकै तो हरख करै, खुसी होय, मन चीत्या कार्य सीध होयै। डावा हाथ री हथेली फुरकै तो चीत्या उपजै। 

इस ग्रंथ में तिथि व पहर के अनुसार अंग फड़कने का विवरण भी दिया गया है।

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स्वरोदय द्वारा शकुन निर्णय

स्वरोदय भी शकुन ज्ञात करने का एक तरीका रहा है। यहाँ इसे ""सरोदा'' के नाम से जाना जाता था। नासिका से निकलने वाले उश्वास को चंद्र व सूरज दो सुर में बाँट कर शकुन ज्ञात किया जाता था।

चंद्र स्वर में किये जाने वाले कार्य इस प्रकार है :-

""जात्रा दान- पुण्य करीजै, वीवा कीजै। समाइ कीजै। वसतर पेहरीजै। सोनो रुपौ घडावीजै, पैहरीजै। सरब बसत संग्रह कीजै। गुरदरसण जाहजै। मंत्र- साधना कीजै। धन- संग्रह कीजै। भणीजै भणावीजै, भाइबंध सु मीलीजै, साधुजण रै दरसण जाइजै। रसायण कीया क्रिया। कवी गीत कहीजै। हर मींदर देवरौ कीजै। पहली हल जोतरीजै। अन सारु खाड़ खिणीजै। सूने खेड़ै बसती कीजै। भाइबंध रो मनावणौ कीजै। संसार माहे ऐसा सुभ काम चंद्र रै सुर कीजै।

सूरज के स्वर में इस तरह के कार्य करने शुभ माने जाते हैं :-

""ससत्र लोह लीजै। ससत्र बांधीजै। जुवां रमीजै। चोरी कीजै। वाहण गज घोड़ी लीजै रथ लीजै रथ बैसीजै। भेषज कीजै। भूप घात कीजै। सीनांन कीजै। मैथून भोग कीजै। कुकरम, काम, भूत, वीर, वैताल, साधना, षड्गधार, उदेग, झगड़ो, सूरज सुरकीजै। समद जीहाज नांखीजै, नदी तीरीजै। बावड़ी में पेसीजै सूरज रे सुर ऐता कांम कीजै।

इस प्रकार विहित कार्यों के लिए शुभ समय के साथ स्वरों के शुभाशुभ शकुन का भी महत्व था। स्वरोदय से शकुन ज्ञात करने का तरीका कुछ भी जानकार लोगों तक सीमित था। इसमें बाँया स्वर चंद्र का तथा दांया स्वर सूरज का माना जाता है। ""चरणदास जी को सरोधो'' नामक ग्रंथ में इन स्वरों में किये जाने वाले निर्दिष्ट कार्यों का उल्लेख मिलता है। ""महादेवजी रो सरोदो'' नामक पुस्तक में स्वर के लक्षण, शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के शुभाशुभ स्वराघात, विपरीत, तत्वभेद, गरमभेद आदि पक्षों पर भी विचार किया गया है।

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सूर्य व चंद्रग्रहण संबंधी शकुन

सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के फलाफल के संबंध में व्याप्त धारणाएँ लोक समाज में देखने को मिलती रही हैं। इनका कृषण व व्यापारी वर्ग में विशेष महत्व रहा है। शकुनों का उल्लेख इस प्रकार है :-

""माह रे महने ग्रहण होइ तो धमचक होइ सूर्यग्रहण व्हैतो हिदू नै भूंडौ चंद्रग्रहण व्हैतो मुसलमान नै पीड़ा उपजै। फागण मासे ग्रहण व्हैतो मेह बिरषा घणी करै। चैत्र मासे ग्रहण हुवै समौ दुर्भक्ष पड़े। वैसाख मासे ग्रहण व्हेतो अछोत जात पीड़ा होई। तिल गुड़ कपास, गोऊ घणा नीपजै। जेठ सर्व बसत सुंहगी होई पण चोपदा पीड़ा करै। असाढ़ मासे ग्रहण होई तो षंड मंडले वृषा करै। कंद मूल विनास करै। सांवण- घोड़ा रोग ग्रभ विनास करै अन मुंहगौ करै वायरौ घणौ बाजै काल पड़ै। भादवा- अस्रीया रो ग्रभ विनासै। आसोज- चारु मास घणी वृषा राजा प्रजा सुखी रहे। काती- साख रौ चोथौ भाग हरै, समौ करवरौ होई। मगसर- अन संग्रह कीजै तीजै मासे लाभ तिगुणौ। पोह रै महीनै ग्रहण होइ तो अग्नि रो चालौ करै।

ग्रहण संबंधी मान्यताओं का पता इस लोकोक्ति के माध्यम से होता है 

""गुरु दिन ग्रहण जे होय तो दुगणौ लाभ चौमास।
रुपौ तेल कपास घी, संग्रह करजौ तास।।

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नक्षत्र आधारित शकुन :-

नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर भी कई शकुनों का निर्धारण किया जाता था। इसके आधार पर बरसात के होने का अनुमान लगाया जाता है। जेठ के नये चांद को देखकर लोग अंदाजा लगाते हैं कि हल कब जुतेगा। यदि चांद का आकार हल जैसा खड़ा है, तो जेठ महीने में ही हल जुतने के आसार बनते हैं। यदि चांद का आकार बिल्कुल खड़ा है, तो अकाल का अंदेशा रहता है। यदि चांद तिरछा सोया हुआ दिखे, तो बीमारी होने का अंदेशा रहता है। इसी प्रकार वैशाख से आसोज तक के नक्षत्रों में भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य, अश्लेषा और मघा नक्षत्रों के संबंध में भी लोगों की अलग- अलग मान्यताएँ हैं।

कहा जाता है कि भरणी नक्षत्र में वर्षा की बूंदें पड़े तो, अकाल का अंदेशा रहता है। ऐसी परिस्थिति में लोग अपनी स्रियों तक को छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। जैसा कि निम्नलिखित राजस्थानी कहावत में कहा गया है - बरसै भरणी छोड़े परणी।

रोहिणी नक्षत्र में वर्षा हो तो महँगाई बढ़ती है - रोहण रैली, रुपियां री अधेली।

रोहिणी नक्षत्र के पहले हिस्से में वर्षा हो तो, अकाल की संभावना रहती है और दूसरे हिस्से में बारिश हो, तो बहुत दिनों ते जांजळी (पहली वर्षा होने के काफी दिन तक दूसरी वर्षा न होने का समय) रहती है। यदि तीसरे हिस्से में बारिश हो, तो घास का अभाव रहता है और चौथे हिस्से में बादल बरसें, तो अच्छी वर्षा की उम्मीद रखनी चाहिए।

पैली रोहण जळ हरै, बीजी बोवोतर खायै।
तीजी रोहण तिण खाये, चौथी समदर जायै।।

यदि रोहिणी नक्षत्र में गर्मी अधिक हो तथा मृग नक्षत्र में आंधी जोरदार चले, तो आर्द्रा नक्षत्र के लगते ही बादलों की गरज के साथ वर्षा होने की संभावना बन सकती है।

रोहण तपै, मिरग बाजै तो आदर अणचिंत्या गाजै।

एक दोहे में अकाल के लक्षणों का चित्रण इस प्रकार किया गया है :-

मिरगा बाव न बाजियौ, रोहण तपी न जेठ।
क्यूं बांधौ थे झूंपड़ौ, बैठो बड़ले हेठ।।

आर्द्रा नक्षत्र के प्रारंभ में यदि बारिश के छींटे हो जाएँ, तो शुभ माने जाते हैं और जल्दी ही बरसात होने की आशा बंधती है।

पहलों आदर टपूकड़ौ मासां पखां मेह।

यदि आर्द्रा नक्षत्र में आँधी चलनी शुरु हो जाये, तो अकाल का जोखिम न आने लगता है।

आदर पड़िया बाव, झूंपड़ झौला खाय।

यदि चौदह नक्षत्रों में दो- दो दिन के हिसाब से हवा नहीं चले, तो क्या- क्या होगा, इस विषय में निम्नलिखित छंद कहा गया है :-

दोए मूसा, दोए कातरा, दोए तिड्डी, दोए ताव।
दोयां रा बादी जळ हरै, दोए बिसर, दोए बाव।।

अर्थात् पहले दो दिन हवा न चले, तो चूहे अधिक होंगे, दूसरे दो दिन हवा न चले तो "कातरे' एक कीड़ा, (जो धान को चट कर जाता है) का प्रभाव, तीसरे दो दिन हवा न चले तो टिड्डी आने का अंदेशा, चौथे दिन हवा न चले, तो नजला- बुखार का प्रकोप रहता है, पाँचवें दो दिन हवा न चले, तो वर्षा का अभाव, छठे दो दिन पवन न चले, तो जहरीले जंतुओं की बहुतायत और सातवें दो दिन हवा न चले, तो आँधी चलने का अंदेशा रहेगा।

एक अन्य दोहा इस प्रकार है :-

श्रावण वद एकादसी, तीन नक्षत्रां ताल।
कृतिका करै करवरौ, रोहिण करै सुगाल।।

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समाज में प्रचलित कुछ अन्य शकुन- अपशकुन

बारह महीनें में प्रत्येक मास के अनुसार, उसके फलों का निर्धारण किये जाने का प्रावधान रहा है। लौकिक भाषा में इसे ""आरख'' कहा जाता है।

कुछ वृक्ष व वस्तुओं के स्वरुप में होने वाले परिवर्तन के आधार पर भी शकुन ज्ञात किये जाते थे :-

चरण बोरी अरु खेजड़ा, सकल पान झड़ि जाय।
सुभ आरख आसाढ़ को, राजा सम्यो सराय।।
लूण गले सावण गले, नवसादर गल जाय।
जद असवारी मेह अती, कमी न राखे काय।।
कागद फुटे लेखनी, स्याही अॅली जाय।
लेहां आगम यूं लखे, मेहा मुगता होय।।

कृषकगण कृषि संबंधी पूर्वानुमान अपनी अनुभव के आधार पर लगाने में निपुण रहे हैं। इससे जुड़ी कुछ लोकोक्तियाँ इस प्रकार हैं :-

आदरा बाजै बाय, झूंपड़ी झोला खाय।

आदरा भरै खादरा, पनरवसु भरै तलाव।

कालै केरड़ा, सुकालै बोर।

गांव मांय तो कूतरा रोही मांय सियार।
ये जो रोवै तो पड़ै, गोहत्यारों काल। 

जे बरसै उतरा तो धान न खावै कूतरा।

जे पुरवा लावै पुखाई तो सूखी नदियाँ नांव चलाई।

नाड़ा टांकण, बलद बिकावण तूं क्यूं चाली आधै सांवण

अक हल हत्या, दो हल काज।
तीन हल खेती, चार हल राज।।

नीं बोली सूकै नींव पर, पड़ै न नीचै आय
अन्न न नीपजै अक कण, काल पडैगो आय।।

मधा को बरसणो अर मा को पुरसणो बराबर

दो सांवण दो भादवा, दो कातिक दो ""मा।
ढाढ़ा ढोरी बेचकर, नाज बिसावण जा।।

जेठी बाजरो अर मोबी पूत राम दै तो पावै

बुध बावणी सुक्कर लावणी

काती को मे कटक बरोबर

जेठ सरीखा बाजरा, कातिक सरीखा जौ कोनी।

बरसात होने पर जब किसान हल लेकर खेत की तरफ प्रस्थान करता है, उस समय यदि कोई स्री पानी का बेड़ा लिए, उसके सामने आ जाती है या उसे अपने सामने धान मिल जाता है, तो अच्छा शकुन होता है। इसी प्रकार हाथ में लोटा लिये हुए महाजन, अपने औजारों के साथ सुथार करे तथा तलवार लिये राजपूत मिले, तो अच्छे शकुन माने जाते हैं, परंतु यदि खेत जाते कृषक को निसंतान पुरुष, बांझ, विधवा, सुनार, आटा, घी, खुले केश वाली स्री तथा लकड़ी की गठरी मिले, तो यह अपशकुन माना जाता है। किसान उस दिन खेत में हल नहीं चलाते।

जब प्रभात में बिना कुछ खाये- पीये सफर करना है, तब घड़ा, गधा, कोचरी हनुमान जी का देवरा तथा हरिण को दाहिनी तरफ रखकर प्रस्थान करना चाहिए

कुंभ करेवौ, कोचरी, हड़मत ने हिरणां।
इतरा लीजै जीवणा, परभाते निरणां।।

दैनिक जीवन में ऐसे ही कई और शकुन विचारे जाते हैं। सामने शव का मिलना शुभ माना जाता है। घर में दूध पीकर निकलना अशुभ होता है, परंतु गुड़ व दही का सेवन उत्तम माना जाता है। प्रस्थान करते समय मेहतरानी का मिलना उत्तम शकुन है। बिल्ली का रास्ता काटना, सामने से किसी का छींकना, रात को कुत्ते का भौंकना तथा मयूरों का दर्दनाक आवाज में चिल्लाना किसी आपत्ति का संकेत होता है।

वैसे तो आज के वैज्ञानिक युग में इन शकुनों का महत्व दिनोंदिन कम होता जा रहा है, लेकिन कई शकुन हमारे पूर्वजों के पर्याप्त अनुभव का नतीजा है। उन्हें झुठलाया या नकारा नहीं जा सकता। आवश्यकता है उनके इस विद्या के ठोस आधारों पर गहन विश्लेषण की, जिससे इसकी विश्वसनीयता का समुचित मूल्यांकन किया जा सके तथा समाज को लाभ मिल सके।

 

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