राजस्थान

 

नागौरी बैल

प्रेम कुमार


प्रकृति की अनुपम देन, नागौरी बैलों का मारवाड़ के सांस्कृतिक इतिहास में विशेष योगदान है। इस नस्ल के बैलों की मूल उत्पत्ति, श्वालक क्षेत्र से मानी जाती है। यह क्षेत्र नागौर जिला मुख्यालय से दक्षिण- पूर्व में २५- ३० कि. मी. से आरंभ होकर द. प. में ४५ किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र की लंबाई पूर्व से पश्चिम ४५ कि.मी. तथा उत्तर से दक्षिण की और ३५ कि.मी. है। इसके अंतर्गत आने वाले गाँवों में भाखरोद, डेह, सीलगाँव, संखवास, खजवाना, खरनाल, कुथेरा, शीनाय आदि प्रमुख है।

विशेषताएँ

श्वालक क्षेत्र की दुभट मिट्टी तथा यहाँ की ज्वार इस नस्ल को विशिष्टता प्रदान करती है। नागौरी बैल प्रायः सफेद रंग के होते हैं। इनका सीना मजबूत होता है। आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक होती है। इनकी गर्दन चुस्त, मुतान कसा हुआ, पूंछ अपेक्षाकृत छोटी, सींग छोटे व सुडौल, टांगें पतली, मुँह छोटा तथा त्वचा मुलायम होती है। ये बैल, एक दिन में पाँच एकड़ तक भूमि जोत सकते हैं। कच्चे मार्ग पर ६ से ८ क्विंटल तथा पक्के मार्ग पर ८ से १० क्विंटल माल की ढ़लाई कर सकते हैं।

ब्रिटिश काल में, मारवाड़ राज्य में नागौर व उसके आसपास के क्षेत्रों में हलिवारा तथा परबतसर पशुपालन के मुख्य केंद्र रहे हैं। पशुओं की बिक्री के लिए कई स्थलों पर सलाना मेले लगाये जाते हैं।बैलों की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए, जिले में तीन स्थानों, जिला मुख्यालय ( रामदेव जी पशु मेला ) परबतसर उपखण्ड ( तेजाजी का मेला ) तथा मेड़ता सिटी उपखण्ड ( बलदेवराम जी का मेला ) पर राज्य स्तरीय मेले का आयोजन किया जाता है।

 

 

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