राजस्थान

 

जागीरदारों पर लगने वाले राजकीय कर

प्रेम कुमार


 

रेख

जागीरदारों से रेख के रुप में रुपया वसूल करने का रिवाज पहले-पहल अकबर के समय चला था। इसी से मारवाड़ में भी पहले-पहल सवाई राजा शूरसिंहजी के समय से ही जागीरदरों के पट्टों में उनके गांवों की रेख दर्ज की जाने लगी। परन्तु उन दिनों जागीरदारों को, मारवाड़-नरेशों के साथ रहकर, बादशाही कामों के लिए होनेवाले मारवाड़ से बाहर के युद्धों में भी भाग लेना पड़ता था। इसी से उस समय उनसे उस चाकरी (सेवा) के अलावा किसी प्रकार का अन्य कर नहीं लिया जाता था। वास्तव में उस समय राजपूत-सरदारों को जागीरें देने का मुख्य प्रयोजन भी यही था कि वे महाराज की तरफ से युद्ध में भाग लेकर शत्रु का दण्ड देने में सहायता करें। 

जब महाराजा विजयसिंहजी के राज्य-समय मारवाड़ का सम्बन्ध मुगल बादशाहत से टूट गया और देश में मरहटों का उपद्रव उठ खड़ा हुआ, तब उस नवीन उपद्रव को दबाने के लिए जोधपुर-दरबार को रुपयों की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसीसे महाराजा विजयसिंह ने ई० स० १७५५ (वि० सं० १८१२) में, जागीरदारों पर, शाही जजिये और मारवाड़ से बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में, एक हजार की आमदनी पर तीन सौ रुपयों क हिसाब से मतालबा नामक कर लगाया। इसके बाद उन (महाराजा विजयसिंहजी) के राज्यकाल में ही यह कर और कई बार जागीरदारों से वसूल किया गया। परन्तु इस कर की रकम हर बार आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रही। उस समय के लिखित प्रमाणों से प्रकट होता है कि इसकी तादाद एक हजार की रेख (आमदनी) पर कम से कम डेढ़ सौ और अधिक से अघिक पाँच सौ रुपयों तक पहुँची थी।

महाराजा भीमसिंह जी के समय भी प्रति हजार ती सौ रुपयों के हिसाब से दो बार यह कर वसूल किया गया।

महाराजा मानसिंहजी के समय, जयपुर की चढ़ाई के बाद, अमीरखाँ को रुपये देने के लिए प्रति हजार तीन सौ रुपये के हिसाब से रेख ली गई और ई० स० १८०७ (वि० सं० १९६४) से राज्य के विशेष खर्च के लिए हर पांचवें वर्ष प्रति हजार दो सौ से तीन सौ रुपये तक रेख वसूल करने का एक नियम सा बना दिया गया।

ई० स० १८३९ (वि० सं० १८९६) में पोलिटिकल एजेंट की सलाह से हर साल प्रति हजार की जागीर पर अस्सी रुपये रेख का लेना निश्चित किया गया। परन्तु एक दो बरस बाद ही जागीरदारों ने इस कर का देना बंद कर दिया।

ई० स० १८४४ (वि० सं० १९०१) में महाराजा तखतसिंहजी के समय मुता लक्ष्मीचन्द ने फिर रेख वसूल करने का प्रबन्ध किया। परन्तु इसमें पूरी सफलता नहीं हुई। अन्त में ई० स० १८४९ (वि० सं० १९०६) में पंचोली धनरुप ने, जो उस समय फौजदारी अदालत का हाकिम था, महाराज की आज्ञानुसार जागीरदारों से प्रति हजार अस्सी रुपये सालाना रेख के देने का दस्तावेज लिखवा लिया।

यद्यपि रेख का रुपया मुत्सद्दियों और खवास-पासवानों आदि से भी लिया जाता है, तथापि उसकी शरह भिन्न थी।

 

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हुक्मनामा

यह रिवाज भी पहले-पहल अकबर ने ही चलाया था। उस समय किसी मनसबदार के मरने पर उसका सारा माल-असबाबए जागीर और मनसब जब्त कर लिए जाते थे और फिर उसके लड़के के एक बड़ी रकम पेशकशी में न करने पर वे सब बादशाही इनायत के तौर पर उसे दे दिए जाते थे।

मारवाड़ में यह रिवाज पहले-पहल राजा उदयसिंहजी के समय चला था। इसके बाद सवाई राजा शूरसिंह जी ने इस (पेशकशी) की रकम जागीर की एक वर्ष की आय के बराबर नियत कर दी। महाराजा अजितसिंहजी ने राजराजेश्वर का खिताब प्राप्त करने के बाद इसका नाम बदल कर हुक्मनामा कर दिया। परन्तु महाराजा अजितसिंहजी के नाबालिग होने के समय जब मारवाड़ पर बादशाह औरंगजेब का अधिकार हो गया, तब मुल्क के तागीर (जब्त) हो जाने पर भी यहां की प्रजा, दरबार और सरदारों को, अपना असली मालिक समझ, सालाना कुछ रुपया खर्च के लिए देने लगी और इसकी एवज में महाराजा की तरफ के सरदार भी अपने सैनिकों के आक्रमण आदि से उसकी रक्षा करने लगे परन्तु महाराजा अजितसिंहजी के जोधपुर पर अधिकार कर लेने पर यह रकम तागीरात के नाम से उपर्युक्त हुक्मनामे के साथ ही वसूल की जाने लगी। 

महाराजा विजयसिंह के समय जब मरहटों के उपद्रव को दबाए रखने के लिए अधिक रुपयों की आवश्यकता होने लगी, तब हुक्मनामे की रकम डेढ़-दोगुनी कर दी गई। महाराज भीमसिंहजी के दीवान सिंघी जोधराज ने इसके साथ मुत्सद्दी-खर्च नाम की एक रकम और बढ़ा दी। इसके बाद महाराजा मानसिंहजी के समय हुक्मनामे की रकम दुगुनी से भी अधिक बढ़ गई और महाराजा तखतसिंहजी के समय तिगुनी चौगुनी तक हो गई।

अंत में ई० स० १८६९ (वि० सं० १९२६) में पोलिटिकल ऐजेन्ट की सलाह से हुक्मनामे के नियम बनाए गए और साधारण तौर पर इसकी रकम जागीर की एक साल की आमदनी का पौन हिस्सा नियत किया गया। साथ ही बेटे या पोते के उत्तराधिकारी होने पर उस साल की जिस में हुक्मनामा लिया गया हो रेख और चाकरी माफ की गई। परन्तु भाई-बन्धुओं में से किसी के गोद आने पर रेख लेने और चाकरी माफ करने का नियम बना। साथ ही यदि एक वर्ष में दो उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठें, तो केवल एक हुक्मनामा और दो वर्ष में दो डत्तराधिकारी गद्दी बैठें तो डेढ़ हुक्मनामा लेने का नियम रहा। 

इसके अलावा यदि जागीरदार हुक्मनामे की रकम को ज्यादा समझे, तो जागीर की जब्ती कर उसकी एक साल की आमदनी ले लेने का कायदा भी बना दिया गया। परन्तु साथ ही ऐसी हालत में उससे रेख और चाकरी नहीं लेना भी तय किया गया। उपर्युक्त नियमों के अलावा यदि किसी व्यक्ति के लिए दरबार की तरफ का कोई खास हुक्म होता है तो उसका पालन करना भी आवश्यक समझा जाता है।

 

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चाकरी

जागीरदारों पर लगने वाले एक कर को चाकरी कहा जाता था। पहले किसी शक्तिशाली नियामक सत्ता के न होने से छोटे-बड़े सब प्रकार के भू-स्वामी अपने अधिकारों की रक्षार्थ अथवा उनके प्रसार के लिए बहुधा युद्धों में लगे रहते थे। इसी से अन्य प्रदेशों की तरह मारवाड़ में भी जागीरदारी की प्रथा प्रचलित थी। राजा लोग अपने भाइयों, बन्धुओं, सम्बन्धियों और अनुयायियों को कुछ भू-भाग देकर जागीरदार बना लिया करते थे और व लोग अपने नरेशों की आज्ञा मिलते ही दल-बल सहित सेवा में आ उपस्थित होते थे। इसी प्रकार ये जागीरदार भी अपना जन-बल दृढ़ रखने के लिए अपने भाइयों और बन्धुओं को अपने अधीन के प्रदेश का कुछ भू-भाग दे दिया करते थे और समय आने पर उन्हें अपनी अथवा अपने स्वामी की सेवा के लिए बुला लिया करते थे। इस प्रकार के प्रबन्ध के कारण ही उस समय राजाओं को युद्ध के लिए अपने निज के वेतन-भोगी सैनिक रखने की अधिक आवश्यकता नहीं होती थी।

परन्तु महाराजा विजयसिंहजी के समय जागीरदारों के बागी हो जाने से राज्य की रक्षा के लिए विदेशी वेतन-भोगी सेना का रखना आवश्यक हो गया और इसके द्वारा उद्धत जागीरदारों और उनके अनुयायियों को दबाने में मिली सफलता को देख महाराजा मानसिंहजी ने इसकी संख्या बढ़ा दी। इसके बाद ई० स० १८८९ (वि० सं० १९४५) में महाराजा जसवन्तसिंहजी (द्वितीय) के समय, आधुनिक ढंग पर सरदार-रिसाले की स्थापना की गई और ई० स० १९२२ (वि० सं० १९७९) में सरदार इन्फ्ैंट्री कायम हुई।

इसी बीच उपर्युक्त चाकरी के भी नियम बना दिए गए। इनके अनुसार जागीरदारों के लिए जागीर कीएक हजार की वार्षिक आय पर एक घुड़सवार, साढ़े सात सौ की आय पर एक शुतर-सवार और पाँच सौ की आय पर एक पैदल रखना निश्चित हुआ। परन्तु कछ ही काल में जागीरदारों द्वारा नियत की जाने वाली जमैयत के आदमियों और वाहनों की दशा ऐसी शोचनीय हो गई कि वे केवल समाचार लने - ले - जाने या ऐसे ही अन्य छोटे-छोटे काम करने लायक रह गए। यह देख दरबार ने इन सवारों आदि के स्थान में नकद रुपया लेना तय किया और इसके अनुसारघुड़सवार के १७, शुतर-सवार के १५ और पैदल के ८ रुपये निश्चित हुए। वि०सं० १९०१ में यहां पर अंगरेजी रुपये का चलन हो जाने से यह रकम घटाकर एक हजार के पीछे १५ रुपये कर दी गई। परन्तु फिर भी बहुत कम जागीरदारों ने नकद रुपया देना स्वीकार किया। अन्त में ई० स० १९१२ (वि० सं० १९६९) में यह रकम घटा कर एक हजार पीछे १२ रुपये कर दी गई। इस पर सारे ही जागीरदारों ने इसे स्वीकार कर लिया।

इसके अलावा जो जागीरदार अपनी जागीर की असली आमदनी पर चाकरी देना चाहते हैं, उनकी जागीर की आमदनी की जांच की जाकर उसके अनुसार चाकरी लेने का भी नियम है। ऐसे जागीरदारों की आमदनी की जांच हर दसवें साल नए सिरे से होती थी।

 

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