राजस्थान

राजस्थान के मंदिर निर्माण गतिविधियों के प्रमुख केंद्र

झालावाड़ कोटा क्षेत्र के मंदिर तथा मूर्तिकार - परंपरा

अमितेश कुमार


 

कोटा

आठवीं शताब्दी के अंतिम दशक में उपरमाल में मालव, महामरु और महागुर्जर शैलियों का समन्वय हाड़ौती क्षेत्र के मंदिरों में भी दिखाई पड़ता है। हाड़ौती में मध्य भारतीय वास्तु परंपराओं का प्रभाव मरु गुर्जर शैलियों की अपेक्षा अधिक दिखाई पड़ता है। ये मंदिर अधिकांश निरंधार हैं तथा मंच जैसी पीठ पर आधारित हैं, जिसमें अधिकांश में खुर, कुम्भ, अन्तरप तथा कपोतपाली नामक गढ़ने बनती हैं। 

कोटा क्षेत्र के अधिकांश मंदिरों में मंच, लतिन प्रकार का शिखर, गर्भगृह, गूढ़मंडप तथा देव कुलिकाएँ तथा एकाण्डक या पण्चाण्डक शिखर बनते हैं, जो मालवा क्षेत्र की परंपरा है। वेदी बंध की गढ़नों में भी खुर, कुंभ, कलश और कपोतपाली प्रमुख हैं। कभी- कभी खुर के ऊपर मध्य में एक रथिका बनी रहती है, जिसमें देव परिवार की प्रतिमा उत्कीर्ण होती है। गर्भगृह त्र्यंग प्रकार का होता है, प्रत्येक अंग के बीच एक सलिलान्तर, कटि तथा वरण्डिका तक चलता है। मंडोवर की ताखों में स्तंभ गोल तथा उन पर आमलक के अभिप्राय अंकित होते हैं।

कोटा क्षेत्र शिव तथा अन्य देवों के मंदिरों से परिपूर्ण था। इस क्षेत्र में विभिन्न मंदिरों का प्रमाण हमें अटरु, चार- चौमा, मुकन्दरा, आमवां, कृष्ण विलास, बूढ़ादीत, कन्सुआ आदि स्थानों से प्राप्त होता है। इनके आधार पर तत्कालीन धार्मिक संप्रदायों की लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। कृष्ण विलास के अवशेषों से वैष्णव मंदिरों की विद्यमानता का पता चला है। रामगढ़ एवं अटरु के मंदिर इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों से अपेक्षाकृत आकार में बड़े हैं। ये दोनों ही शैव मंदिर थे।

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आमवां के मंदिर

कोटा जिले में मुकन्दरा के पश्चिम में आमवां का पूर्वाभिमुखी तीन गर्भगृह वाला मंदिर की संरचना अपने निकटवर्ती मंदिरों से भिन्न बटेसेर (भोरैना) व बडौह (विदिशा) के मंदिरों से मिलती जुलती है। इसके साथ ही इस मंदिर में क्षेत्रीय विशेषताएँ भी हैं। इससे शिल्पियों के आवागमन एवं सांस्कृतिक आदान- प्रदान का प्रमाण मिलता है। यहाँ एक ही भि पर तीन गर्भगृह बने हैं, जिसमें बीच का मंदिर त्र्यंग प्रकार का है। इस पर लतिन शैली का शिखर था। प्रवेश द्वार के ललाट बिंबों की मूर्तियों के आधार पर ये तीनों मंदिर क्रमशः सूर्य (दक्षिण), विष्णु (मध्य) और शिव (उत्तर) को समर्पित थे। तीनों के सामने एक मुखालिंद था। 


इस त्रिक प्रासाद के दक्षिण तथा पश्चिम में दो मंदिर हैं। इनमें दक्षिणी मंदिर में ब्राह्य भित्ति की भद्रा ताखों में पार्वती- परिणय, सूर्य और नरसिंह की मूर्तियाँ तथा कणाç पर दिक्पाल मूर्तियाँ हैं। पश्चिमी त्र्यंग प्रासाद में भी अग्नि, सूर्य और स्कंद की मूर्तियाँ हैं। आमवां के इन सभी मंदिरों का निर्माण ८२५ ईस्वी से ८५० ईस्वी के मध्य हुआ प्रतीत होता है।

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कन्सुआ के मंदिर

कोटा में कन्सुआ (कण्वाश्रम) शिवपूजा का सबसे प्राचीन केंद्र था। यद्यपि मंदिर का मूल रुप नष्ट हो गया है, परंतु यहाँ से प्राप्त वि.सं. ७९५ / ७३८ ईस्वी के अभिलेख के आधार पर कन्सुआ के मंदिर की निर्माण तिथि का निर्धारण किया जा सकता है। मंदिर में चतुर्मुख शिवलिंग की उपासना होती थी। यद्यपि मंदिर का पुनर्निमाण हुआ है, परंतु चतुर्मुख शिवलिंग अपने मूल स्थान पर गर्भगृह में विद्यमान है। 

इसके अतिरिक्त एक अन्य चतुर्मुख शिवलिंग तथा लकुलीश की प्रतिमा ही यहाँ से प्राप्त होती है। मूलरुप में मंदिर का गर्भगृह त्र्यंग प्रकार का था, जिसका गूढ़मंडप दुबारा बनाया गया है। इसके स्तंभ तथा सिरदल प्राचीन मंदिर के हैं, अतः यह अनुमान किया जाता है कि मंदिर में मुखालिंद था।


मंडप के सामने की भित्ति में दो प्रतिमाएँ पुराने अवशेषों में से लगाई गई हैं, जिनमें एक लकुलीश तथा दूसरी नृत्यत गणेश की है। मंडप के प्रवेश द्वार के सिरदल पर वैष्णव मूर्तियाँ अंकित हैं। संभवतः इस प्रासाद की वैष्णव देवकुलिका की सामग्री इसमें प्रयोग की गई है। जिसके आकार के आधार पर मंदिर के ऊँचे शिखर का अनुमान लगाया जा सकता है। शुकनासा पर चतुर्भुज विष्णु की स्थानक मूर्ति प्राप्त होती है।

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बाडोली के मंदिर

बाडोली कोटा में ५१ किलोमीटर दूर चंबल तथा बामिनी नदी के संगम से पाँच किलोमीटर दूर है। नदी के उस पार भैंसरोड़गढ़ है, जो पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह नवीं तथा दसवीं शताब्दी में शैव पूजा का एक केंद्र था, जहाँ शिव तथा शैव परिवार के अन्य देवताओं के मंदिर थे। बाडोली के मंदिरों के समूह में घटेश्वर मंदिर में शिव के नटराज स्वरुप को विशद रुप से उत्कीर्ण किया गया है। इन मंदिरों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का कार्य १८२१ ई. में जेम्स टॉड ने किया था। यद्यपि टॉड ने भारतीय धार्मिक, पौराणिक एवं प्रतिमा विज्ञान के ज्ञान के अभाव में अनेक मूर्तियों का वर्णन एवं नामकरण गलत किया है। परंतु मंदिरों की मूर्तिकला शैली की प्रशंसा वास्तव में इन मंदिरों के उपयुक्त ही है। इसके बाद फग्र्यूसन ने भी इन मंदिरों का उल्लेख तथा तलच्छन्द के मानचित्र बनाये। जिसको बाद में बर्जेस ने संशोधित किया था। 

बाडोली के मंदिरों का निर्माण आठवीं शताब्दी से ११वीं शताब्दी के बीच हुआ था। इनमें १ और ८ संख्या के मंदिर नवीं शताब्दी, तथा ४,५, ६ और ७ दशवीं शताब्दी तथा संख्या २,३ और ९ दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ के हैं। यद्यपि बाडोली से मंदिरों के निर्माण या आश्रयदाता का उल्लेख करता हुआ कोई अभिलेख नहीं मिलता है, परंतु इस क्षेत्र से प्राप्त कुछ अभिलेखों के आधार पर विद्वानों ने इन मंदिरों का निर्माण जन सहयोग द्वारा आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच निर्धारित किया है।

टॉड का यहाँ मिले दो अभिलेखों में से एक अभिलेख में संवत् ९८१ कार्तिक सुदी १२ को व्याकुलज द्वारा सिध्देश्वर के मंदिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है। दूसरा अभिलेख संवत ९८३ चैत्र सुदी ५ को व्याकुलज द्वारा शंभु के सुंदर मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। इस अभिलेख में अधिष्ठातृ देव का नाम झरेश्वर है, जो संभवतः घटेश्वर का ही दूसरा नाम है, क्योंकि इन मंदिरों के पास एक प्राकृतिक झरना है। ब्यूलर तथा टाड ने मूल अभिलेख नहीं छापा है, अतः इन तिथियों के विषय में केवल अनुमान किया जा सकता है। यह संभव है कि कालांतर में मंदिर के शिवलिंग की घट के समान आकृति से यह घटेश्वर नाम से विख्यात हो गया हो।

बाडोली में छोटे- बड़े कुल ९ मंदिर हैं। इनमें से आठ दो समूहों में हैं। मंदिर संख्या १-३ जलाशय के पास हैं तथा अन्य पाँच इनसे कुछ हटकर एक दीवार से घिरे अहाते में हैं। एक मंदिर लगभग आधा किलोमीटर उत्तर- पूर्व में है। कुछ अन्य मंदिरों के अवशेष भी यहाँ बिखरे हुए हैं।

बाडोली के सभी मंदिरों के शिखर में दो को छोड़कर पाषाण का प्रयोग हुआ है। यद्यपि इस क्षेत्र में पाषाण की सुलभता है। इन सभी मंदिरों में जगती का अभाव है न प्रदक्षिणा पथ या कोई घेरा है। इन मंदिरों की अंदर की भित्ति अलंकरण विहीन है। तीन छोटे मंदिरों के अतिरिक्त सभी के गर्भगृह पंचरथ हैं और पीठ में तीन सादी गढ़नें हैं, जिनमें वास्तुशास्रीय नाम कपोत, कलश और कुम्भ है, जिनके बीच में अंतर प है। कपोत पर चैत्य- गवाक्ष अभिप्राय उत्कीर्ण है। पीठ के नीचे कुछ मंदिरों में वेदीबंध की गढ़नों में उल्टा कमल, जाड्यकुम्भ आदि की गढ़ने कपोत, कुम्भ आदि से अधिक हैं।

इन मंदिरों का वास्तु एवं अलंकरण के आधार पर किया गया अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि ये मंदिर कुछ समय के अंतराल से तीन कालांशों में रखे जा सकते हैं। सबसे प्राचीन मंदिर संख्या १ और ८ तथा दूसरा समूह ४,६ व ७ और तीसरा समूह २,३ तथा ९ है। ये सभी मंदिर क्रमशः आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य निर्मित हुए थे। इन मंदिरों का क्रमवार उल्लेख इस प्रकार है :-

मंदिर संख्या १:- 

इस मंदिर का मात्र गर्भगृह तथा अन्तराल शेष है। मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है। मंदिर में कोई प्रतिमा शेष नहीं है। गर्भगृह में एक शिव लिंग स्थापित है।


मंदिर संख्या २:-

इस मंदिर के खण्डहरों में गर्भगृह, अंतराज तथा अर्धमंडप हैं। तलच्छंद में गर्भगृह त्रिरथ है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार सप्त शाखा वाला है, जिसमें पद्मशाखा के अतिरिक्त सभी सादी हैं। इस मंदिर के गर्भगृह में शेषशायी विष्णु प्रतिमा थी, जो अब कोटा के राजकीय संग्रहालय में संरक्षित है।


मंदिर संख्या ३ :-

प्रस्तर- निर्मित इस मंदिर शिखर में ईंटों का भी प्रयोग किया गया है। यह एक जलाशय के मध्य बना है। गर्भगृह तथा मुखमंडप सादे हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की तीनों दिशाओं में प्रवेश द्वार तथा पीछे की भित्ति में जाली बनी है। गर्भगृह पंचरथ प्रकार का है। शिखर पर भी चैत्यगवाक्ष तथा आमलक अभिप्राय अंकित हैं।


मंदिर संख्या ४:-

यह त्रिमूर्ति मंदिर के नाम से पहचाना जाता है, क्योंकि इसके गर्भगृह में शिव की महेश मूर्ति प्रतिष्ठित है, जिसे सामान्यजन त्रिमूर्ति कहते हैं। गर्भगृह पंचरथ प्रकार का है तथा ऊध्वच्छंद में पीठ, जंघा तथा शिखर युक्त है।

प्रवेश द्वार के ललाट बिंब पर नटराज की मूर्ति है। द्वारशाखाओं पर दोनों ओर गंगा एवं यमुना तथा प्रतिहारी की मूर्तियाँ हैं। एक नाग पुरुष प्रणाम करते हुए कमल के फूल एवं पत्तों के अलंकरण के मध्य उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त एक पृथक ताख में शिव के चतुर्भुज द्वारपाल की प्रतिमा है, जो डमरु एवं त्रिशूल धारण किये हैं। 

दूसरी शाखा का द्वारपाल खट्वांग, सपं और खप्पर लिए है। इन द्वारपालों की त्रिभंग मुद्रा तथा कट्यवलम्बित हाथ मूर्ति को कमनीयता प्रदान करते हैं। बाडोली के सभी मंदिरों की गंगा- यमुना मूर्तियाँ अत्यंत आकर्षक हैं। एक हाथ में कलश तथा दूसरा कमर पर रखे अपने वाहनों पर खड़ी हुई बड़े आकार के गोल कुण्डल, हार, केयूर, मेखला, पैरों में आभूषण पहने हुए उत्कीर्ण हैं। उदुम्बर पर बीच में कमल दण्ड पर पूर्ण विकसित दो कमलों के नीचे एक- एक किन्नर वाद्य बजाते हुए अंकित किए गए हैं। गर्भगृह की मूर्ति वस्तुतः महेश मूर्ति हैं, जिसके दोनों ओर ऊपर ब्रह्मा एवं विष्णु हाथ जोड़े हुए खड़े हैं।

मंदिर संख्या ५ :-

इस मंदिर में अब सिर्फ गर्भगृह शेष बचा है। अन्य मंदिरों के समान ही इसमें भी गर्भगृह, अंतराल तथा मुखमंडप था। ललाट बिंब पर गणेश तथा गर्भगृह में वामन की मूर्ति होने (दृष्टव्य, चित्र संख्या ३२) के इसे वामन मंदिर भी कहा जाता है। दसवीं शताब्दी के आस- पास मंदिरों के ललाट बिंब पर प्रमुख देवता के स्थान पर गणेश प्रतिमा भी उत्कीर्ण होने लगी थी। यह मंदिर इसका एक उदाहरण है।

मंदिर संख्या ६ :-

इसे महिषमर्दिनी मंदिर के रुप में जाना जाता है, क्योंकि गर्भगृह में महिषमर्दिनी की मूर्ति है। प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन मकर तोरण युक्त ताखों में पद्म के आसन पर महेश्वरी (मध्य), ब्रह्माणी तथा वैष्णवी की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। दोनों द्वार शाखाओं पर ललितासन में बैठी हुई देवी मूर्तियाँ अंकित हैं।

मंदिर संख्या ७ :-

बाडोली के मंदिर समूह में सबसे महत्वपूर्ण यह मंदिर घटेश्वर के नाम से विख्यात है। प्रमुख मंदिर में गर्भगृह के अतिरिक्त अंतराल तथा अर्धमंडप तथा इसके सामने बाद में बना हुआ रंगमंडप है, जिसे श्रृंगार चौरी भी कहा गया है। गर्भगृह में पंचायतन परंपरा में पाँच लिंग योनि प पर बने हुए हैं। गर्भगृह के ललाट बिंब पर शिव नटराज तथा द्वार शाखाओं पर शैव द्वारपालों की उपस्थिति एवं गर्भगृह की प्रमुख बाहरी ताखों में त्रिपुरांतक मूर्ति, नटराज एवं चामुण्डा की मूर्तियाँ इसे शिवायतन सिद्ध करते हैं।

गर्भगृह का शिवलिंग मूल रुप से अधिष्ठित प्रतीत होता है, क्योंकि इस शिवलिंग की आकृति की पूजा का दृश्य एक अन्य मंदिर के टूटे हुए प्रवेश द्वार के सिरदल पर अंकित प्राप्त हुआ है। यह अवशेष एक अन्य मंदिर का है, जो अब नष्ट हो चुका है। गर्भगृह पंचरथ प्रकार का है।

गर्भगृह के प्रवेश द्वार में चार सादी शाखाएँ हैं, जिनपर आधार तथा शीर्ष पर ताखों में प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। दो शाखाओं के बीच में एक पद्मयष्टि की शाखा है। आधार पर गंगा, यमुना तथा शैव द्वारपाल हैं। उदुम्बर दोनों कोनों पर रथिकाओं में कार्तिकेय तथा गणेश चार अर्धस्तंभों पर आधारित जुड़ा अर्धमंडप छः स्तंभों पर आधारित है। यह एक खुले मंडप के रुप में है, जिससे चारों दिशाओं में आधारित आयत बाहर निकले हैं। रंगमंडप में २४ स्तंभ हैं। स्तंभ अत्यंत आकर्षक हैं। घटेश्वर मंदिर का तलच्छंद जगत के अम्बिका मंदिर के समान है। 

मुख्य मंदिर का मंडप तीनों दिशाओं में खुला है एवं इसमें एक तोरण है, जिस पर नृत्यांगनाएँ एवं संगीतज्ञ अंकित हैं। सभामंडप के अष्टकोणीय स्तंभों की प्रत्येक दिशा में एक- एक अप्सरा मूर्ति विभिन्न मुद्राओं में अंकित हैं। ऐसा जो स्तंभ की प्रदक्षिणा में तल्लीन प्रतीत होती है। स्तंभों, मकरतोरण एवं अप्सराओं की अंकन शैली खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की शैली की परिचायक है। अतएव बाडोली के मंदिरों की निर्माण तिथि उपरोक्त लक्ष्मण मंदिर से पहले की अर्थात् नवीं शताब्दी की हो सकती है। 

अप्सराओं के अंकन में स्थानीय रंग स्पष्ट दृष्टिगत होता हे। विशेष तौर पर अप्सराओं की वेशभूषा तथा साथ में उत्कीर्ण पालतू पशुओं के अंकन में जैसे कि एक अप्सरा के चरणों के पास बैठा हुआ ऊँट उत्कीर्ण है। 

गंगा और यमुना नदी देवताओं का शिव एवं अन्य देवताओं के अनुचरों के रुप में अंकन किया गया है। यहाँ नदी देवियाँ प्रवेश द्वार की चौखट पर ही उत्कीर्ण नहीं की गई हैं, अपितु गर्भगृह की बाहरी तीनों की बाहरी प्रमुख ताखों में चामुंडा, शिवनटराज तथा त्रिपुरांतक शिव के साथ ही विद्यमान हैं।

मंदिर संख्या ८ :- 

यह गणेश मंदिर के नाम से जाना जाता है। अब केवल गर्भगृह तथा अंतराल शेष है। गर्भगृह त्रिरथ प्रकार का है।

मंदिर संख्या ९ :-

यह माताजी का मंदिर कहलाता है। मंदिर के गर्भगृह में महिषमर्दिनी तथा गणेश की प्रतिमाएँ हैं। इनमें महिषमर्दिनी की मूर्ति मध्य में पीठिका पर अंकित होने से यही मंदिर की अधिष्ठातृ देवी है।

यहाँ एक मंदिर और था, जो अब पूर्णतः नष्ट हो चुका है, जिसका अनुमान प्रवेश द्वार की चौखट, सिरदल और दो स्तंभों के अवशेषों से होता है। यह मंदिर अवश्य ही लकुलीश का होगा, जैसा कि सिरदल के ललाट बिंब पर अंकित प्रतिमा से ज्ञात होता है। इन मंदिरों के विश्लेषण से यह संभावना उचित प्रतीत होती है कि नवीं शताब्दी ईस्वी में बाडोली पाशुपत संप्रदाय का केंद्र था।

 

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