राजस्थान

राजस्थान के मंदिर निर्माण गतिविधियों के प्रमुख केंद्र

अलवर क्षेत्र के मंदिर व मूर्ति- परंपरा

अमितेश कुमार



पड़ानगर के मंदिर

पड़ानगर गाँव जयपुर- राजगढ़ मार्ग पर जयपुर से ९६ किलोमीटर दूर स्थित है। इसका प्राचीन नाम राज्यपुर था। यहाँ ५ कि.मी. की परिधि में एक शिवायतन नीलकंठ मंदिर समेत कुल १९ मंदिरों के अवशेष विकीर्ण हैं। इन मंदिरों में केवल नीलकंठ मंदिर ही सबसे अच्छी स्थिति में बची हुई है। अवशिष्ट खंडहरों में दो अन्य शिवायतनों का पता उनके गर्भगृह में प्रस्थापित शिवलिंगों के आधार पर चलता है। 

नीलकंठ मंदिर से कुछ दूर एक जैन मंदिर के ध्वंसावशेष भी प्राप्त होते हैं, जो नवगजा नाम से प्रसिद्ध हैं। संभवतः इस मंदिर में प्रतिष्ठित विशालकाय तीथर्ंकर प्रतिमा के आधार पर ही इस मंदिर का यह नामकरण हुआ होगा। अन्य सभी मंदिर अत्यंत जीर्ण- शीर्ण दशा में खंडहरों के ढेर के रुप में पाषाण टीलों जैसे दिखाई पड़ते हैं। इन मंदिरों की वेदिका संरचना अत्यंत ऊँचाई पर है। यहाँ के अन्य मंदिरों से प्राप्त मूर्तियाँ अब नीलकंठ मंदिर के प्रांगण में एक बरामदे में संग्रहीत हैं। ये मंदिर इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि अलवर के इस क्षेत्र में ब्राह्मण धर्म के साथ- साथ जैन धर्म भी पल्लवित पुष्पित होता रहा।

पड़ानगर के ध्वंसावशेषों तथा मंदिरों की पीठिका संरचनाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि ये सभी ऊँचे एवं विशालकाय मंदिर रहे होंगे। आबानेरी (जयपुर) तथा मंडोर (जोधपुर) के मंदिरों के समान ही ये भी तीन वेदिका -- स्तरों वाले मंदिर की परंपरा में निर्मित हुए थे। इस परंपरा का सर्वाधिक प्राचीन वेदिका स्तरों वाला मंदिर नंदनगढ़ में पहली बार शताब्दी ईस्वी पूर्व का प्राप्त होता है।

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नीलकंठ मंदिर

पड़ानगर में शैव धर्म की लोकप्रियता का परिचायक नीलकंठ मंदिर के आस- पास के क्षेत्रों से प्राप्त अभिलेखों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नीलकंठ मंदिर का निर्माण १० वीं शताब्द के पूर्वार्द्ध में हुआ होगा। गणेश प्रतिमा की चरण चौकी से प्राप्त विक्रम संवत १०१० (९५३ ई.) के एक लघु अभीलेख से यह ज्ञात होता है कि उपर्युक्त मूर्ति की स्थापना के समय नीलकंठ मंदिर में नित्य पूजा, अर्चना आदि होती थी। 

इसी क्रम में विक्रम संवत् १०१६ (९५९ ई.) का राज्यपुर के केंद्रीय प्रतिहारी का करद बड़गू राजा मथनदेव का दान अभिलेख यह स्पष्ट करता है कि इस तिथि से बहुत पहले यह मंदिर अस्तित्व में आ चुका था। इस अभिलेखों के आधार पर यह अनुमान तर्कसंगत है कि मंदिर के निर्माण नवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ होगा। मूर्तिकला एवं स्थापत्य की शैली गत विशेषताओं के आधार पर भी सभामंडप के स्तंभों तथा प्रतिभाओं का अंकन यह स्पष्ट करता है कि यह नवीं शताब्दी के प्रारंभ में निर्मित हुआ होगा।

नीलकंठ के मंदिर का जीर्णोद्धार उसके ध्वंसावशेषों से ही किया गया है। मंदिर का गर्भगृह, मंडप तथा प्रवेश द्वार अभी भी पूर्ववत् हैं जबकि विक्रम संवत १०१६ के अभिलेख में उल्लिखित गौण आयतन पूर्णतः ध्वस्त हो चुके हैं। मूर्तियों का अलंकरण एवं उत्कीर्णन समय के साथ पुराना हो गया है।

मुख्य नीलकंठ मंदिर पश्चिमीभिमुखी है। इसके गर्भगृह में क्वार्टज काले पत्थर का शिवलिंग प्रतिष्ठित है। इसी आधार पर देवता एवं आयतन का नामकरण भी नीलकंठ पर पड़ा। सभामंडप के स्तंभ गोलाकार हैं और प्रप्येक स्तंभ पर नृत्य दृश्यों के अर्धचित्र अंकित हैं। स्तंभ के चारों ओर विभिन्न मुद्राओं में अप्सराओं का चित्रण उन्हें गतिमयता प्रदान करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परिक्रमा कर रही हैं। स्तंभों का अंकन अत्यंत सुंदर है एवं समकालीन बाडोली के मंदिरों के स्तंभों की याद दिलाया है।

मंदिर के गर्भगृह की बाह्य भित्ति की मूर्तियाँ एवं अलंकरण अत्यंत प्रभावशाली हैं। देवताओं एवं अप्सराओं का अंकन तथा अन्य सभी अलंकरणों में सूक्ष्मता एवं लालित्य गृष्टिगोचर होता है। गर्भगृह की तीनों प्रमुख ताखों में क्रमशः नरसिंह, सूर्य, विष्णु- ब्रह्मा- शिव का संयुक्त विग्रह तथा त्रिपुरांतक शिव की मूर्तियाँ दृष्टव्य, (चित्र संख्या ४०) अधिष्ठित हैं। मंदिर की दक्षिणी दिशा की प्रमुख ताख में नरसिंह की प्रतिमा है, जो हिरण्यकशिपु से संघर्षरत है। यहाँ नरसिंह अवतार का चित्रण प्रतिमा- विज्ञान में दिये गये ध्यान के अनुसार न होकर पौराणिक कथाओं के आधार पर किया गया है। 

नीलकंठ मंदिर के गर्भगृह की पृष्ठभाग की भित्ति के प्रमुख ताख में सूर्य- विष्णु- ब्रह्मा- शिव का संयुक्त रुप से अंकित किया गया है। यहाँ प्रमुख शरीर सूर्य देव का है। जिसमें ब्रह्म के तीनों स्वरुप ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का समन्वय हो रहा है। प्रकृत शक्ति के विभिन्न रुपों का समन्वय एक प्रमुख देव में प्रतीकात्मक रुप में प्रस्तुत करने की परंपरा उत्तर गुप्तकालीन मूर्तिकला की विशेषता थी। उत्तरी दिशा की प्रमुख ताख में प्रतिष्ठित शिव की संहारमूर्ति भी उल्लेखनीय है। यहाँ शिव त्रिपुरासुर का वध करते हुए अंकित किए गए हैं। इस प्रतिमा में शिव प्रमुख दो भुजाओं से धनुष की प्रत्यंचा पर शर- संधार करते हुए प्रत्यालीढ़ मुद्रा में प्रस्तुत हैं।

 

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