रुहेलखण्ड

Rohilkhand


संगीत

संस्कृति शब्द से जीवन का प्रत्येक पक्ष सम्बद्ध है। किसी भी पक्ष के अभाव में संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। संगीत भी इन्हीं पक्षों में से एक है। संगीत और भारतीय संस्कृति का सम्बंध बहुत पुराना है। भारत के प्रत्येक प्रान्त और क्षेत्र का अपना पृथक संगीत है। हर प्रान्त के संगीत की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं। रुहेलखण्ड क्षेत्र का भी अपना मौलिक संगीत है। रुहेलखण्ड के संगीत को निम्नलिखित भागों में विभक्त करके समझा जा सकता है :-

1. चारबैत
2. ढोला
3. आल्हा
4. भारतीय संगीत के लिए रुहेलखण्ड की देन -सहवासन रामपुर घराने का संगीत

1. चारबैतः
"चारबैत" रुहेलों का प्रसिद्ध संगीत है। इसके सम्बन्ध में रुहेला साहित्य में विवरण नहीं मिलता। उर्दू भाषा में एक पुस्तक "शब्बीर अली खाँ शकेब रामपुरी"की उपलब्ध है जिसको "खुदा बक्श आरिएन्टल पब्लिक लाईब्रेरी पटना" ने
1995 में प्रकाशित किया गया है। इसका नाम "चारबैत" व इन्तखाब " है। चारबैत पर यह प्रथम पुस्तक है जिसके आधार पर इस संगीत की जानकारी मिलती है।

रुहेलखण्ड में (विशेष रुप से रामपुर में ) "चारबैत" की परम्परा रुहेला पठानों के कारण पड़ी.रुहेला पठान "पश्तो" भाषा बोलते थे और उनकी अपनी सभ्यता संस्कृति थी।"चारबैत" का सम्बन्ध उनके लोक संगीत से था। पश्तो में "चारबैत" को "चरबैत्यह" कहा जाता था। इस प्रकार "चरबैत्यह" रुहेला पठानों का लोक संगीत था जिसको वह अपना दिल बहलाने के लिये गाते थे, कव्वाली की भाँति चारबैत को कई पठान मिलकर गाते थे।"चारबैत" गाने वालों के दल होते थे। जिनको "अखाड़ा" कहते थे। सरदार के साथ जो पठान दायें - बायें बैठते थे, वह बाजू कहलाते थे। "चारबैत" को "दफ" की धुन पर गाया जाता था। "दफ" में एक ओर चमड़ा लगता है जिससे धुन उत्पन्न की जाती है। गाने वाले जितनी ऊँची तान लेते थे उतनी ही उनका प्रशंसा की जाती थी। रामपुर में रुहेला पठानों के "अखाड़े" थे। रुहेलों के प्रशासन के समय "पश्तो" भाषा में "चारबैत" गाने क परम्परा थी। जब १८वीं शताब्दी में रुहेला पठानों का प्रशासन समाप्त हो गया और रियासत रामपुर में स्थापित हो गयी तो "चारबैत" पश्तो के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में गाये जाने लगे और उनकी लोकप्रयता बढ़ने लगी।

"चारबैत" के लिए कोई एक शीर्षक नहीं था। उसको खुशी और शोक दोनों अवसरों पर गाया जाता था। प्राय: सवन के महीने में "चारबैत" अधिक गाये जाते थे। ऐसे "चारबैत" को "बरसाती" या "मल्हार" कहा जाता था। प्रत्येक वर्ष उन तारीखों में जब धार्मिक त्यौहार होते थे, "चारबैत" गाने का प्रबन्ध किया जाता था। उदाहरणार्थ जब रामपुर के नवाब अली मोहम्मद खाँ की हत्या कर दी गयी, तो इस घटना पर "अब्दू" ने "चारबैत" कविता की रचना की। इस समय जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनके पद अधिक प्रसिद्ध थे उन पर भी "चारबैत" की रचना की गयी। इस प्रकार "चारबैत" का दायरा विस्तृत हो गया जिसके कारण वह अधिक प्रसिद्ध हुआ।

"चारबैत" के दो भाग होते है-- प्रथम भाग "सिरा" कहलाता है। और द्वितीय भाग को पश्तो में "कड़ी" और ऊर्दू में "बन्द" कहते हैं। "सिरा" कभी एक पंक्ति होती है और दो पंक्तियां होती हैं जो आपस में पधक होती है। "बन्द" में पंक्तियों की संख्या निश्चित नहीं होती। चार पंक्तियों के बन्द को कड़बन्द कहा जाता है।"कड़बन्द " में तीन पंक्तियाँ "पधक" होती हैं। चौथी पंक्ति में "सिरा" के साथ पधक होता है। अगर पंक्ति के अन्तिम भाग में दूसरी पंक्ति का प्रथम भाग बनाया जाता है तो ऐसे "चारबैत" को "जंजीरी" कहते हैं। कभी- कभी "जंजीरी चारबैत" में फारसी के टुकड़े भी जोड़े जाते थे। जिनका उद्देश्य "चारबैत" को अधिक प्रभावशाली बनाना था।इसके अलावा प्रत्येक पंक्ति में अतिरिक्त पंक्तियां भी बढ़ा दी जाती थीं जिसको "मुस्तजाद" कहते थे। इसका उद्देश्य भी "चारबैत" को अधिक प्रभावशाली बनाना था। "चारबैत" ताल में लिखे जाते थे और इनमें उचित भाषा की पंक्तियों की प्रयोग किया जाता था। परन्तु "चारबैत" को अधिक प्रभावी बनाने के लिए यदि कोई शब्द उचित नहीं होती ,तो कभी -कभी उचित शब्द का प्रयोग नहीं भी किया जाता था। बस इतनी बात दिमाग में रखी जाती थी कि "दफ" के थाप गाने वालों के अनुरुप हो। "चारबैत" में साहित्यिक आवश्यकताओं की तुलना में सुनने वालों को आकर्षक लगे इस बात का ध्यान रखा जाता था। उसी कारण "चारबैत" अधिक लोकप्रिय हो गया।

रामपुर में "चारबैत" के लेखकों को नवाबों की सहायता प्राप्त थी। विशेष रीत से 19 वीं शताब्दी में नवाब "कल्बे अली खाँ"के शासनकाल में रामपुर के " बेनज़ीर बाग" में नारंगियों के वृक्ष के नीचे "चारबैत" के अखाड़े बारी-बारी लगते थे। यहाँ "चारबैत" निरन्तर गाया जाता था। जब भी नवाब साहब " बेनज़ीर बाग" से गुजरते थे, चारबैत गाने वालों को पुरस्कार देते थे। रामपुर से ही चारबैत की परम्परा दूसरी पठान रियासतों अर्थात "टोक" तथा "भोपाल" में भी पहुँची। "चारबैत" एक गुरु "जान मुहम्मद खाँ" ने बरेली में भी एक अखाड़ा स्थापित किया। बरेली में भी "पीरबहोड़ा" के स्थान पर चारबैत का अखाड़ा लगता था। परन्तु बरेली में "चारबैत" का प्रचलन अधिक समय तक नहीं रहा और न ही बरेली में किसी " चारबैत" के "गुरु" या "अखाड़े" का नाम मिलता है। रुहेलखण्ड के दूसरे जनपदों में भी "चारबैत" के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती है। "चारबैत" की परम्परा रामपुर से ही पड़ी थी,जिसका रामपुर में आज भी प्रचलन है। "चारबैत" के माध्यम से भी रामपुर के पठानों का संस्कृति को पहचाना जा सकता है।

रामपुर के "चारबैत" के लेखकों में (जिनका सम्वन्ध 18 वीं और 19 वीं शताब्दी से था और जिन्होंने "चारबैत"को विकसित किया) उनमें अब्दुल करीम खाँ ,महबूब खाँ अम्बर शाह खाँ अशीफता,किफ़ायत उल्ला खाँ , किफ़ायत गुलाम नबी खाँ, सबर मियाँ खाँ अब्दू और जलिदल आदि प्रसिद्ध हुए।

राजा लाईब्रेरी रामपुर में "चारबैत" की कई पाण्डुलिपियां उपलब्ध हैं। "शब्बार अली खाँ शकेब रामपुरी " की "चारबैत" पर एक पुस्तक का प्रकाशन भी हुआ है। यदि उर्दू के शोधकर्ता कार्य करते रहे तो आशा है कि "चारबैत" को उर्दू साहित्य में शामिल कर लिया जायेगा। चारबैत की पश्तो बोलने वाले पठानों ने परम्परा डाली थी। अत: "चारबैत" के माध्यम से पठानों की परम्परा , उनके व्यवहार, उनके समय की संस्कृति और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिल सकती है। चारबैत के दो उदाहरण इस प्रकार हैं--

1. हमेस खिंची तेगेयार देखिए कब तक रहे

सर का ये गर्दन पर बार देखिए कब तक रहे

वायदे जो करके गये देखिए वह आए कब

प्यार वह सूरत हमें देखिए दिखाए कब

फुर्क तेजाना के दिन देखिए अब आए कब

इसका हमें इन्तेजार दिखाये कब तक रहे।

2. मैं मौसम --ए-- बरसात में हूँ जान से आरी

                                 जीना हुआ भारी

परदेश को पिया जिस वक्त घर से सीधारें,

                                 दिल पर चले आरे

फुर्सत में तड़पती हूँ यहाँ विरहा की मारी

                                 जीना हुआ भारी

क्या मैने ख़ता की थी जो तू घर नहीं आया

                                 परदेस बसाया

इस रैन अंधेरी में हूँ मै काँपती सारी

                                 जीना हुआ भारी

बरसात के मौसम में जुदा हो गया जानी

                                 कहूँ किससे कहानी

दिन रात तड़पकर मैं हुई जान से आरी

                                 जीना हुआ भारी

ये मौसम -- ए -- बरसात है इक धूम मची है

                                 घर-घर में खुशी है

मैं गमज़दा करती हूँ यहाँ गिरया - ओ- जारी

                                 जीना हुआ भारी

कासिद तू खबर जाके "जलिदल" का भी ला दे

                                बस हाल सुना दे

कह देना कि घर आओ पिया तुम पे मैं वारी

                                जीना हुआ भारी।

2. ढोला

विभिन्न स्थानीय लोक कथाओं पर आधारित संगीत की यह विधा रुहेलखण्ड क्षेत्र की विशेषता है। "मारु का गौना" नामक लोककथा इसी प्रकार की लोक कथा है। जिसे प्राय: ढोला गायन का आधार बनाया जाता है। ढोला गायन में बरेली जिले की चनहेटी ग्राम के विवासी श्री ओम प्रकाश उर्फ प्रकाश भैया का स्थान सर्वप्रमुख है। स्थानीय देहाती भाषा में गाए हुए इनके गीत सहज रुप से किसी को भी अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम हैं। ढोला गायन में निम्नलिखित बाद्यों का प्रयोग किया जाता है --


1. बैन्जो (वादक- अशरफी लाल)
2. ढोलक (वादक- बाबू अली)
3. मजीरा (वादक- कृष्ण अन्जाम)
4. खजरी (वादक- सुरेन्द्र कुमार)
5. चंग झंकार (वादक- सुरेन्द्र कुमार)

श्री ओम प्रकाश द्वारा गाये गीतों के कैसेट बड़ी मात्रा में स्थानीय बाजारों तथा दूरस्थ नगरों में उपलब्ध हैं।

 

3. आल्हा

आल्हा एक लम्बे समय से चली आ रही लोक कथाओं का नायक है। इसकी कथाओं को आधार बनाकर रुहेलखण्ड क्षेत्र में एक विशिष्ट गायन प्रथा को जन्म मिला जिसको " आल्हा" नाम से जाना जाता है। इस प्रथा के गीत भी स्थानीय देहाती भाषा में है।

 

4. भारतीय संगीत के लिए रुहेलखण्ड की देन -सहवासन रामपुर घराने का संगीत

 

भारतीय संगीत अनेक क्षेत्रों और राज्यों के संगीत को अपने भीतर समाहित किए हुए है। वास्तव में अनेकता में एकता भारतीय संगीत की प्रमुख विशेषता है। भारतीय शास्रीय संगीत के क्षेत्र में सहसवान रामपुर घराने का योगदान अतुलनीय है।

 

सहसवान बदायूँ जिले में स्थित कस्बे का नाम है, जो 13 वीं शताब्दी से ही संगीत और साहित्य का केन्द्र रहा है। 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सहसवान में शाहबुद्धौला और कुतुबद्धौला नामक दो संगीतज्ञ हुए, जो कि बाद में अवध के नवाब के दरबारी संगीतज्ञ थे। इनके शिष्य महबूब हुसैन खाँ ने अपना जीवन सहसवान में व्यतीत किया।यह ख़याल शैली के गायक थे। महबूब हुसैन खाँ सितार वादन में भी निपुण थे। महबूब हुसैन खाँ ने अपने तीनों पुत्रों को भी संगीत की विधिवत शिक्षा प्रदान की । इनमें से अली हुसैन तथा मुहम्मद हुसैन ने बीन नामक वाद्य को अपनाया जबकि इनायत हुसैन ने गायन को अपनाया। अपने पिता से संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त तीनों भाई रामपुर चले गए। रामपुर इस समय संगीत का एक प्रमुख केन्द्र था। इनायत हुसैन खाँ ने रामपुर जाकर उस्ताद बहादुर हुसैन खाँ की शिष्यता ग्रहण की । बहादुर खाँ 18 वीं शताब्दी के कुशल संगीतज्ञों में थे। इनायत हुसैन खाँ ने बहादुर हुसैन खाँ की घोर साधना की और स्वयं को एक कुशल संगीतज्ञ के रुप में स्थापित करने में सफल रहे। इनायत हुसैन खाँ मात्र 17 वर्ष की आयु में संगीत के क्षेत्र में बुलंदियों पर थे। इस प्रकार उनकी इस सफलता के पीछे सहसवान और रामपुर घरानों की पृष्टभूमि थी। उस्ताद इनायत हुसैन खाँ के फन से प्रभावित होकर रामपुर के नवाब ने उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया और उन्हें अपना दरबारी संगीतज्ञ बनाया। यहीं से संगीत के एक घराने का प्रारम्भ हुआ। चूँकि इनायत हुसैन खाँ की संगीत कला में सहसवान और रामपुर दोनों ही स्थानों का योगदान था, अत: इस घराने को सहसवान रामपुर घराने के नाम से जाना गया।उस्ताद इनायत हुसैन खाँ को जयपुर,दतिया,हैदराबाद,ग्वालियर और नेपाल के दरबारों में आमन्त्रित किया गया, जहाँ उन्होंने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ उस्ताद हद्दुू खाँ इनायत हुसैन खाँ से अत्यन्त प्रभावित हुए और उनसे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इस विवाह संबंध के पचात् रामपुर घराने ने ग्वालियर घराने से संगीत के क्षेत्र में बहुत कुछ ग्रहण किया।

 

उस्ताद इनायत हुसैन खाँ के अनेक शिष्य हुए जिनमें मुश्ताक हुसैन खाँ विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। मुश्ताक हुसैन खाँ सहसवान के निवासी थे किन्तु बाद में यह रामपुर में बस गए। मुश्ताक हुसैन खाँ ख्याल गायकी में सिद्धहस्त थे। इसके अतिरिक्त बन्दिश तथा रामसागर पर भी मुश्ताक हुसैन खाँ की मजबूत पकड़ थी ।उनकी कला से प्रभावित होकर रामपुर के तत्कालीन नवाब ने उन्हें अपना दरबारी संगीतज्ञ बनाया। शनै:- शनै: उस्ताद मुश्ताक हुसैन खाँ की शोहरत बढ़ती गई और अनेक संगीत प्रेमियों ने उनकी शिष्यता ग्रहण की। संगीत पर उस्ताद मुश्ताक हुसैन खाँ की पकड़ का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शास्रीय गायकी के क्षेत्र में प्रथम "पद्म भूषण सम्मान" सन् 1957 में उन्हीं को प्राप्त हुआ।


सहसवान - रामपुर घराने के अन्य गायकों में हामिद खाँ , साबिर हुसैन खाँ (इनायत हुसैन खाँ के पुत्र) इश्तायिक हुसैन खाँ (उस्ताद मुश्ताक हुसैन खाँ के पुत्र) और उस्ताद निसार हुसैन खाँ प्रमुख थे।


वर्तमान में सहसवान रामपुर घराने के प्रमुख गायकों में उस्ताद सखावत हुसैन खाँ "निशात" (पुत्र उस्ताद इश्तायिक अहमद खाँ) उस्ताद हफीज अहमद खाँ , उस्ताद गुलाम हुसैन खाँ तथा राशिद हुसैन के नाम उल्लेखनीय हैं।

 

सहसवान रामपुर घराने की विशेषताएं


सहसवान रामपुर घराना मूलत: ख्याल गायकी पर आधारित है। इसके अतिरिक्त बन्दिश तथा सरगम भी इस घराने की प्रमुख शैलियां हैं। इस घराने के गायकों की पकड़ भैरव , जय जयवन्ती , केदार, गंड सरंग , गंड मल्हार इत्यादि पर भी है। आज सहसवान रामपुर घराना अपनी स्वर्णमयी संगीत यात्रा के
150 वर्ष पूर्ण कर चुका है। वर्तमान में भी भारतीय संगीत के क्षेत्र में रामपुर घराने की एक अलग पहचान है। आज की पीढ़ी के उस्ताद सखावत हुसैन खाँ उन युवा गायकों में से एक हैं, जिनसे संगीत की दुनिया को बेश्मार उम्मीदें हैं। उस्ताद सखावत हुसैन खाँ सहसवान रामपुर घराने की पुरानी परम्परा को तोड़ना नहीं चाहते, इसलिए वह आज भी रामपुर शहर से जुड़े हुए है और संगीत की सेवा में रत है।

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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