रुहेलखण्ड

Rohilkhand


विवाह संस्कार

इस संस्कार में वर- वधु यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हमारा चित्त एक- सा हो। हममें किसी प्रकार का भेद- भाव न हो। इस प्रकार उनका गृहस्थ जीवन सुख, शांति और समृद्धि पूर्ण होगा और कोई कलह न होगा और उनकी संतान भी उत्तम होगी। विवाह का शाब्दिक अर्थ है वर का वधू को, उसके पिता के घर से अपने घर ले जाना। किंतु यह शब्द उस पूरे संस्कार का द्योतक है, जिससे यह कार्य संपन्न किया जाता था। इस संस्कार के बाद ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इस संस्कार के दो प्रमुख उद्देश्य थे। मनुष्य विवाह करके देवताओं के लिए यज्ञ करने का अधिकारी हो जाता था और पुत्र उत्पन्न कर सकता था।


दूसरे शब्दों में, इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का पूर्ण रुप से समाजीकरण हो जाता था। संतानोत्पत्ति द्वारा वह अपने वंश को जीवित रखने और उसको शक्तिमान बनाने और यज्ञों द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्य पूरा करने की प्रतिज्ञा करता था। साथ ही वह व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करके धर्म संचय करके, अपने जीवन के लक्ष्य- मोक्ष की ओर अग्रसर होता था। भारतीयों की धारणा थी कि बिना पत्नी के कोई व्यक्ति धर्माचरण नहीं कर सकता। मनु के अनुसार इस संसार में बिना विवाह के स्री- पुरुषों के उचित संबंध संभव नहीं है और संतानोत्पत्ति द्वारा ही मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त कर सकता है। प्राचीन भारत में यह समझा जाता था कि पत्नी ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्रोत है।

पुत्री का विवाह करना पिता का परम कर्तव्य समझा जाता था। यदि यौवन प्राप्त करने पर भी कन्या के अभिभावक उसका विवाह न करें, तो वे बड़े पाप के भागी होते थे। धर्मशास्रकारों ने लिखा है कि ऐसी दशा में कन्या स्वयं अपने लिए योग्य वर ढ़ूढ़ कर विवाह कर सकती थी।

गृहसूत्रों में विवाह संस्कार के लिए उपयुक्त समय, वर और वधु की योग्यताएँ और विवाह संस्कार के विभिन्न चरणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अनुसार वधू कुमारी होनी चाहिए और वर की माता की सपिंड - संबंधिनी और वर के गोत्र की नहीं होनी चाहिए। सपिंड का अर्थ है माता के पूर्वजों में छः पीढ़ी और उसके निकट संबंधियों की संतान में छः पीढ़ी। विद्वानों का मत है कि गोत्र उस पूर्वज ॠषि के नाम पर, जिसके उस गोत्र के सभी व्यक्ति संतान हैं। इन प्रतिबंधों का यह उद्देश्य था कि अति निकट संबंधियों में वैवाहिक संबंध न हों। माता- पिता के संतान के साथ या भाई- बहन के अवांछनीय वैवाहिक संबंध का भय ही संभवतः इन प्रतिबंधों का मूल कारण था।

मनु के अनुसार उन परिवारों की कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए, जो धर्म पालन न करतें हों, वेद न पढ़ते हों, जिनमें पुत्र जन्म न होता हो या जिसमें कुछ पुराने रोग हों, क्योंकि पुत्र न होना और रोगों का पैतृक प्रभाव भावी संतान पर हो सकता था। वात्स्यायन ने भी वधू में उक्त अभीष्ट गुणों का होना अनिवार्य माना है। मनु ने वर की योग्यता का विशेष विवरण नहीं दिया है, किंतु याज्ञवल्क्य और नारद ने दिया है। उनके अनुसार वर, वेदों का जानने वाला, चरित्रवान, स्वस्थ, बुद्धिमान और कुलीन होना चाहिए।

विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख 'गृह्यसूत्रों' में मिलता है :-

1. पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे।

2. जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था।

3. विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था।

4. वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं।

5. वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दपंण और उबटन देता था।

6. कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान )

7. वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण )

8. पाषाण शिला पर पैर रखना।

9. वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन )

10. खीलों का होम। ( लाजा- होम )

11. वर- वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भर मिलकर कार्य करेंगे।

अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था।

प्रत्येक धार्मिक कृत्यों में अग्नि में आहुति दी जाती थी और ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। उपर्युक्त धार्मिक कृत्यों में कन्यादान, विवाह होम, पाणिग्रहण, अग्नि- परिणयन, अश्मारोहण, लाजा- होम और सप्त- पदी बहुत महत्वपूर्ण थे। अब हम इन का महत्व समझाते हैं :-

कन्यादान :-

कन्यादान का अर्थ हैं कि कन्या का पिता या अभिभावक उसे वर को देता और वर उसे स्वीकार करता था, तब पिता वर से कहता था कि तुम धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों में अपनी पत्नी का सहयोग लेना और वर तीन बार प्रतिज्ञा करता था कि वह ऐसा ही करेगा।


पाणिग्रहण :-

विवाह के होम के बाद "पाणिग्रहण' होता था, जिसमें पति प्रतिज्ञा करता था कि तुम्हारे पति के रुप में रहने की इच्छा से मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा है। तुम यह भली- भांति समझ लो कि देवताओं ने तुम्हारा शरीर मुझे इस लिए दिया है कि मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ के कर्तव्यों को पूरा कर सकूँ।

लाजा- होम में वधू अर्यमा, वरुण, पूषा और अग्नि देवताओं के लिए अग्नि में खीलों की आहुति देती थी, जिससे कि उसका दांपत्य जीवन सुखमय हो।

अग्नि परिणयन में पति अग्नि और जल- कलश की तीन बार परिक्रमा करता था और पत्नी उसका अनुसरण करती थी। इस समय वर कहता था कि मैं आकाश हूँ और तुम पृथ्वी हो। मैं साम ( संगीत ) हूँ, तुम कविता हो। इसलिए हम विवाह कर रहें हैं अर्थात् हम दोनों के जीवन में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है। हम प्रेम से रहें और संतान उत्पन्न करें, हमारा जीवन निष्कलंक हो। इस प्रकार हम दोनों सौ वर्ष जियें। इसी के साथ अश्मारोहण की क्रिया होती है, जिसमें वर की सहायता से वधू पाषाण- शिला पर पैर रखती है। उस समय वर कहता है कि तेरा प्रेम मेरे प्रति इतना दृढ़ हो, जितनी कि यह पाषाण शिला है। इस के बाद "सप्त- पदी' होती है, जो विवाह संस्कार का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसमें वर- वधू साथ- साथ सात कदम रखते हैं और वर कहता है कि जीवन की स्फूर्ति, शक्ति, धन, संतान और दीर्घ सौभाग्य- पूर्ण जीवन के लिए हम ये सात कदम रख रहे हैं। तुम मेरी जीवन संगिनी बनो, जिससे कि हम दीर्घायु होकर धार्मिक कृत्य कर सकें और संतान उत्पन्न कर सकें।

संस्कार के बाद वर- वधू को लेकर अपने घर जाता था। उस समय पिता अपनी पुत्री को शिक्षा देता था कि मैं आज से तुझे अपने घर से मुक्त करता हूँ। मैं तुझे अब पति के घर का बंदी बनाता हूँ, जिससे कि इंद्र तुझे समृद्धिशालिनी और पुत्रवती बनाए।

प्राचीन काल में वर- वधू विवाह संस्कार के चौथे दिन सहवास करते थे, इससे स्पष्ट है कि विवाह के समय वर और वधू दोनों ही बड़ी अवस्था में होते थे। बाद में कन्याओं का विवाह कम अवस्था में होने लगा।

जो धार्मिक क्रियाएँ विवाह संस्कार के समय की जाती थी, उनसे स्पष्ट है कि विवाह, संविदा नहीं था, पवित्र बंधन था। विवाह करते समय पति- पत्नी का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम तीन पुरुषार्थों को करने योग्य बनाना था, जिससे कि अंत में जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हो सके। अग्नि के समक्ष विवाह संस्कार के महत्व को वात्स्यायन ने स्पष्ट इस प्रकार बतलाया है कि जो विवाह- संस्कार अग्नि को साक्षी बनाकर किया जाता है, उसमें पति- पत्नी का विवाह विच्छेद संभव नहीं है।

आश्वलायन गृह्यसूत्र के अनुसार ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्रजापत्य विवाह पूर्वजों के पुण्य देने वाले हैं, किंतु शेष चार पुण्य नहीं देते। पहले चारों में पिता या संरक्षक स्वयं कन्या को वर देता था, इसलिए ये ही विधि- सम्मत समझे जाते थे। आपस्तंब और बौधायन के अनुसार कन्या के पिता को धन दे कर जो आसुर विवाह किया जाता था, विवाह विधि- सम्मन है और आसुर और पैशाच अवैध हैं। शिष्ट व्यक्तियों को इन दोनों प्रकार के विवाह कभी नहीं करने चाहिए। इसका यह अर्थ है कि मनु के समय तक समाज ने गांधर्व और राक्षस विवाह को भी वैध मान लिया था, क्योंकि क्षत्रियों में इस प्रकार के विवाहों का काफी प्रचलन रहा होगा। महाभारत में स्पष्ट लिखा है कि गांधर्व और राक्षस विवाह क्षत्रियों के लिए उचित है।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-

विश्व के सभी मानव समुदायों में स्री- पुरुष का सामाजिक मान्यता प्राप्त संयोग ( विवाह ) उनकी सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है तथा इस रुप में इसका महत्व अभी भी बना हुआ है। भारतीय आर्यवर्ग में इसका एक बहुत लंबा इतिहास रहा है, जो कि विभिन्न कालों में अपनी इस लंबी यात्रा के विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ आगे बढ़ता रहा है। फलतः इसमें अनेक प्रकार के देश- कालगत अंतर दृष्टिगोचर होते हैं। अतः इसके संस्कारगत स्वरुप पर विचार करने से पूर्व इसके ऐतिहासिक पक्ष पर विचार कर लेना हमारे लिए न केवल रुचिकर होगा, अपितु हमारे पुरातन सामाजिक स्वरुप को समझने में भी सहायक होगा।

विवाह संस्था का उदय एवं विकास :-

महाभारत के एक पुरातन आख्यान से पता चलता है कि पति- पत्नी के रुप में स्री- पुरुष के स्थायी संबंधों की नींव ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने डाली थी। इस आख्यान के अनुसार पुरातन काल अर्थात् वैदिक पूर्व काल में कभी मानव समाज में भी स्री- पुरुष के यौन संबंध अनियमित थे तथा स्रियों में यौन स्वातन्त्र्य की स्थिति थी और इस पशुकल्प स्थिति का अंत किया था, श्वेतकेतु ने। प्रस्तुत आख्यान के अनुसार जब श्वेतकेतु ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलवत् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा, तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा। इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है। इसमें कोई दोष नहीं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया।

किंतु एक अन्य आख्यान के अनुसार स्रियों के लिए एक पति की मर्यादा का विधान स्वेच्छाचारी जन्मांध ॠषि दीर्घतमस ने तब किया, जब कि उनके निरंकुश यौनाचार की प्रवृति से तंग आकर उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर जाने लगी थे। जो हो ये दोनों ही संदर्भ उस काल से संबंध रखते हैं, जबकि मानव समाज अपनी आदिम असभ्य अवस्था से निकलकर एक सामाजिक व्यवस्थिति की ओर बढ़ रहा था। अनेक आदिम समाजों में इससे मिलती- जुलती स्थिति अचिर पूर्व काल तक देखी जाती रही हैं।

किंतु प्रागैतिहासिक काल के संदर्भ में संकेतिक इस सामाजिक स्थिति के दर्शन हमें वैदिकोत्तर काल के साहित्य में कहीं भी नहीं होते हैं। सामाजिक स्तर पर अनियत यौन संबंधों का तो क्या अस्थायी वैवाहिक संबंधों के भी दर्शन नहीं होते। इसका (अस्थायी वैवाहिक संबंध का ) एक मात्र अपवाद पुरुवरा- उर्वसी के विवाह के संदर्भ में पाया जाता है ( ॠग्०
x 95 ), जिसकी आवृति कालिदास के "विक्रमोर्वसी' में भी हुई है।

उल्लेख्य है कि भारतीय इतिहास में एक मान्य सामाजिक संस्था के रुप में विवाह संस्कार का विवरण हमें भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के सर्वप्रथम लिखित ग्रंथ ॠग्वेद (
6 4 2, x 8 5 ) में मिलने लगता हैं। विवाह संस्कार में प्रयुक्त किये जाने वाले सभी वैदिक मंत्रों का संबंध ॠग्वेद में वर्णित सूर्य एवं सूर्या के विवाह से होना इस तथ्य का निर्विवाद प्रमाण है कि इस युग में आर्यों की वैवाहिक प्रथा अपना आधारभूत स्वरुप धारण कर चुकी थी तथा विवाह संस्कार से सम्बद्ध सभी प्रमुख अनुष्ठान- पाणिग्रहण, हृदयालभन, अश्मारोहण, ध्रुवदर्शन, सप्तसदी आदि अस्तित्व में आ चुके थे। उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य में हमें इनका उल्लेख अथर्व.( XIV .1.2 ) में तथा शतपथ ब्राह्मण ( 1.8.3-6 ) में मिलता है।

गृह्यसूत्रकाल तक यद्यपि इसकी रुप- रेखा तैयार हो चुकी थी, किंतु उसमें अभी ऐसा आनुष्ठानिक विस्तार नहीं हुआ था, जैसा कि उत्तरवर्ती संस्कारपद्धतियों में पाया जाता है।

इसके बाद धर्मसूत्रों के समय तक तो इस संस्कार का काफी विस्तार हो चुका था तथा सामाजिक स्तर पर प्रत्येक संस्कारवान् व्यक्ति के लिए इसके विनियोगी का पालन करना एक प्रकार से अनिवार्य हो गया था। महाभारत के आदि पर्व में "आश्रमधर्म' तथा "पतिव्रतधर्म' पर किये गये प्रवचनों से पता चलता है कि उत्तरकुरु को छोड़कर शेष संपूर्ण आर्यावर्त में वैवाहिक संबंधों की पावनता तथा पतिव्रतधर्म के प्रति नारी जाति की प्रतिबद्धता का भाव भली- भांति प्रतिष्ठापित हो चुका था। साथ ही यह भी कि सामाजिक स्तर पर जहाँ ब्रह्मचर्य के उपरांत सामाजिक व्यवस्थाओं एवं सांस्कृतिक परंपराओं को बनाये रखने के लिए गृहस्थ का पालन आवश्यक माना गया था, वहीं धार्मिक दृष्टि से इसके प्रतिफल के रुप में प्राप्त संतति के माध्यम से पितृॠण से उॠण होने एवं वंशपरंपरा को अग्रेसरित करते रहने का आदर्श भी स्थिर किया जा चुका था।

विवाह के प्रकार :-

मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे थीं ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच तथा च सामाजिक स्तर पर इनकी वरीयता का क्रम भी यही स्वीकार किया गया था। विवाह की इन सभी विधाओं को मनु जैसे कट्टरपंथी स्मृतिकार के द्वारा मान्यता दिया जाना। इस तथ्य का द्योतक है कि उस समय भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में यह सभी विधाएँ न्यूनाधिक मात्रा में प्रचलित थीं तथा इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस को ( तथा गांधर्व को ) क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए भी मान्यता दी गयी थी, किंतु साथ ही पैशाच तथा आसुर को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहीं माना गया है। संभवतः इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों तथा वरीयता क्रम में अंतर पाया जाता है। आश्व. (
1/6 ) में पैशाच को राक्षस से पूर्व रखा है। मानव गृ. सू. में केवल ब्राह्म और शौल्क आसुर के ही नाम लिए हैं। आप. ध. सू. ( 2 / 5 / 11 - 20 ) में केवल छः प्रकार ही बताए हैं, प्रजापत्य और पैशाच को छोड़ दिया है। मनु. (3/27- 34 ) ने इनके रुपों- विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं :-


1. ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।

2. दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।

3. आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।

4. प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर "तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो' ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।

5. आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को "आसुर' विवाह कहा जाता था।

6. गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।

7. राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।

8. पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम "पैशाच' विवाह कहलाता था।


उपर्युक्त प्रकार के आठों विवाहों में से प्रथम चार प्रशस्त, समाज एवं धर्म सम्मत माने जाने के कारण सामान्यतः आर्य वर्गीय लोगों में सर्व सामान्य रुप से प्रचलित थे। किंतु शेष चार, जैसा कि इनके जातीय नामों से प्रतीत होता है, तत्तत् आर्येतर वर्गीय जन समुदायों में प्रचलित रहे, यथा "आसुर' असुर वर्गीय लोगों में , "गांधर्व' गंधर्व जातीय लोगों में, "राक्षस' एतद् वर्गीय लोगों में तथा "पैशाच' पिशाच कहे जाने वाले लोगों में वधू प्राप्ति की सर्वसामान्य प्रचलित प्रथा रही होगी। किंतु ऐसा लगता है कि कालांतर में आर्यों के प्रसार तथा इन लोगों के संपर्क में आने के कारण पारस्परिक अंतर्प्रभाव से आर्यों में भी यदा- कदा इन विधियों से वधू प्राप्त कर ली जाने लगी थी।

पुरातन साहित्यिक संदर्भों से पता चलता है कि वैदिकोत्तर काल में आर्य वर्गीय लोगों में भी इन विधियों से वधू- प्राप्त करने की परंपरा, विरल रुप में ही सही, प्रचलित हो चली थी। फलतः कट्टरपंथी आर्य स्मृतिकारों को इन्हें भी सामाजिक मान्यता प्राप्त वैवाहिक संबंधों की सूची में स्थान देना पड़ा, यद्यपि नैतिक आधार पर इनमें से विशेषकर आसुर तथा पैशाच विधियों की निंदा की गयी तथा उनका परिहार किये जाने की सम्मति दी जाती रही।

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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