उत्तरांचल

उद्योग - धंधे


कहा जाता है कि पहले यहाँ कपास बोई जाती थी और कोली कपड़ा बुनते थे। इस कपड़े को 'घर-वुण' (Home-spun ) कहते थे। घर-घर चरखे (रहटे) चलते थे, पर बाद को कल के कपड़े के चलने से यह रोजगार मारा गया। ४०-५० हजार कोली, जो कपड़ा बुनते थे, बेकार हो गए। विदेशी कपड़े को सामने स्वदेशी की दाल न गली। स्वदेशी आंदोलन के बाद कुछ ऊनी व कुछ सूती कपड़ा यत्र-तत्र बनने लगा है। कपड़े का ज्यादा कारोबार काशीपुर में है। वहाँ खद्दर व गाढ़ा, दोनों प्रकार के कपड़े बनते हैं। काशीपुर और जसपुर में छपाई और रंगाई का काम अच्छा होता है। 

ऊन का काम दानपुर, जोघर, दार्मा में होता है। कम्बल, पंखी, पट्टू, दन व थुलमे बनते हैं। ये चीजें ज्यादातर बागीश्वर व जौलजीवी के मेलों में बेची जाती है। स्वदेशी आंदोलन के प्रभाव से ताडीखेत-प्रेम विद्यालय में भी ऊनी माल या गलीचे बनने लगे हैं। बागीश्वर, गणनाथ, सालम आदि में भी आश्रम खुले। जिला-बोर्ड अल्मोड़ा ने भी स्कूलों में तकली का प्रचार किया। जगह-जगह ऊन कातने का काम सिखाया गया। उस कते हुए ऊन का कपड़ा बनाने के लिए बयनशाला भी खोली गई। कूर्माचल में भी सुघड़, सुन्दर व सस्ता ऊनी माल बनकर बाहर जाने लगा। उद्योग-विभाग ने भी यहाँ पर बुनने का स्कूल खोला है। इसमें देशी-विदेशी सूत सभी कि का काम आता है। 

खानें - यहाँ सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, हरताल, सुहागा आदि धातुओं की खानें हैं। सोना-चाँदी ज्यादातर तिब्बत से आता है। कुछ नदियों की रेत में से निकलता है। सौन-आगरी लोग लोहा, ताँबा निकालकर साफ करते थे। कुछ कर राजा को देते थे। यहीं की धातु से प्राय: सब चीजें यहाँ तक कि अस्र-शस्र भी बनते 
थे।

बाद में जब यह प्रान्त सन् १८१५ में अँग्रेजों के अधिकार में गया, तो सरकार ने यहाँ की खानों से कच्ची धातु निकालकर नमूने कलकत्ते भेजे। नमूने अच्छे न निकले। एक में २४ फीसदी, दुसरे में २१ फीसदी लोहा निकला। सन् १८२६ में दूसरी रिपोर्ट सरकार के पास गई। कप्तान ड्रमंड व मि. बिलकिन ने १८३८ से १८४१ तक ताँबे का कारोबार चलाया।

सन् १८५६ में ईस्ट इन्डिया कंपनी ने मि. सौबेरी को लोहा गलाने के लिए कुमाऊँ में भेजा। यहाँ पर रामगाड़, देचौंरी, खुपाताल में लोहे का कारोबार खोला गया। पश्चात् डेवीज एण्ड कंपनी के हाथ बेच डाला। देचौंरी का कारोबार सन् १८६१ में ड्रमंड कंपनी ने खरीदा। १८६२ में ये दो कंपनियाँ 'नॉर्थ आफ इन्डिया कुमाऊँ आइरन वक्र्स कंपनी' के नाम से एक हो गयी। सरकार ने जंगलात के कानून भी इनके वास्ते ढ़ीले कर दिये। जितनी लकड़ी चाहें, ये लोग जंगलों से काट सकते थे। सरकार ने इनसे भी कई शर्तें लिखाई, पर १८६८ में इस कंपनी का दिवाला पिट गया। बाद को जंगलात के कानून सख्त होने पर और खानों में से बिना सरकार आज्ञा के धातु न निकालने का हुक्म होने से ये कारोबार बंद हो गये। कंपनियों के टूटने के बाद भी सौन-आगारी यत्र-तत्र से लोहा निकाल ही लेते थे। पर नियमों की कड़ाई से उन्हें कारोबार बंद करने पड़े। उन्होंने खेती का काम कर लिया।

गौल पालड़ी की ताँबे की खान से शीशा भी मिलता है। दानपुर में भी शीशा पाया जाता है।

हरताल - एक खआन मुस्यारी में है।

Lignite - भीमताल में पाया जाता है।

Graphic - कलमटिया, बानणी, फलसीमी आदि में।

गंधक - मुनस्यारी, नैनीताल, नारगोली, खारबगड़, काठगोदाम आदि में।

सुहागा - तिब्बत में आता है। रामनगर में साफ होता है। वहाँ कई कारखाने हैं।

खड़ी मिट्टी - छखाता में तथा कालाढूँगी के पास निहाल नदी में। 'कमेट' तो कई स्थानों में मिलता है, जो साफ करने से खड़ी मिट्टी का काम दे सकता है।

शिलाजीत - यहाँ कई स्थानों से पत्थर निकाले जाते हैं, जिनसे दवा तैयार होती है।

चूना - जगह-जगह में इसकी खानें हैं। 

फिटकरी - नैनीताल व खैराना के बीच जाखगाँव में पाई जाती है।

जालीपौश - यह भी यत्र-तत्र पाया जाता है। इसकी चिमनियाँ बनती है, तथा अभ्रक नामक देशी दवा भी बनती है।

लीसा - यहाँ से अच्छी तादाद में बाहर को जाता है। चीड़ के पेड़ो से यह निकाला जाता है। पहले भवाली में तारपीन बनाने का कारोबार था, अब यह बरेली में चला गया है।

तेल निकालने का एक कारखाना हल्द्वानी में है। लाई (सरसों) से तेल निकाला जाता है।

चीनी - सन् १९३२-३३ से किछहा व लालकुऐं में चीनी के कारखाने खुल गये हैं।

रुई - काशीपुर में एक रुई साफ करने की कल भी है।

मुक्तेश्वर में डंगरों के बदन से खून निकालकर डंगरों को होने वाली बीमारियों के लिए दवाई (
Serum ) बनाई जाती है। मनुष्यों की बीमारियों में पिचकारी लगाने को भी सिरम बनता है। इसकी एक शाखा बरेली में भी है।



निम्नलिखित जड़ी-बूटियाँ काठगोदाम, टनकपुर, हल्द्वानी, रामनगर आदि स्थानों से देशांतर को भेजी जाती है -


१. छड़ीला या दगद फूल
२. पद्म
३. दारुहल्दी
४. घुड़बच
५. मुलीम
६. पखानवेद
८. रीठा मीठा दाने का 
९. दालचीनी, तेजपात
१०. राजिगरा सफेद व काले छीटे का
११. हंसराज सबज
१२. चिरायता मोटा
१३. कोटू फाफरा दाने का
१४. अमलतास फली व गूदा
१५. सुहागा 
१६. बिरोजा
१७. समोया
१८. घासीजीरा
१९. तेजपत्ता
२०. मिर्च दड़ा
२१. सींक
२२. सिंगाड़ा मोटे दाने का
२३. बनफ्सा
२४. ब्राह्मी
२५. बिजसार की छाल
२६. बबूल
२७. खैर
२८. कायफल की छाल तथा रसौद, कुचिला, पुनर्नवा रोहिणी, पिपली, तरुड़, गेठी, लीसा आदि।

 

 

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