उत्तरांचल

ज्यूँति मातृका प


टेपणके अतिरिक्त जन्माष्टमी, दशहरा, नवरात्री दीवाली इत्यादि के अवसर पर प बनाने की भी परम्परा है जिनमें मुख्य रुप से देवताओं को विभिन्न आकारबद्ध स्वरुप में चित्रित कर अंकित किया जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र में महिलाएँ विभिन्न अनुषठानो पर जलरंगों के संयोजन से कई मनोहारी चित्रणों को मूर्त रुप देती हैं जिन्हें ज्यूँति कहा जाता है। कई लोग इन्हें ज्यूँति मातृका पट्ट कहते हैं। ज्यूँति शब्द का उद्भव सम्भवतः ज्योति से हुआ होगा। जगत जननी शब्द से भी कुछ विद्वान ज्यूँति को साम्य मानते हैं। देवता को मूर्त रुप देने के लिए भित्तिचित्र के रुपमें दो आयामी ज्यूँति को अभिव्यक्ति दी जाती है। यह वह ज्यामितीय अथवा अलंकारिक अर्धचित्रात्मक संरचना है जिसमें विभिन्न रंग व प्रतीक प्रयोग किए जाते हैं। ज्यूँति नामक यह संरचना टेपण के गेरु अथवा बिस्वार के प्रयोग से भी नूतन आयाम पातीहै। इसमें जल रंगों का भी प्रयोग किया जाता है। अन्तर केवल यह है कि पट्टे अथवा ज्यूँति में जो चित्र बनाया जाता है वह दीवार अथवा कागज के धरातल पर तैयार होता है तथा अंगुलियों के स्थान पर रुई और सीमक की तूलिका से संयोजन को रुप दिया जाता है। इसमें देवता विशिष्ट के विविध गुणों को दर्शाया जाता है।

ज्यूँति के अतिरिक्त भी कई आलेखन हैं जो विशेष आसानों पर भित्ति चित्रों के रुप में अथवा कागज के धरातल पर तैयार किए जाते हैं। मांगलिक अवसरों पर देव प्रतिष्ठा के रुप में इन्हें पूजा जाता है। भित्ति चित्रों में ज्यूँति के अतिरिक्त ज्यूँति मातृका चौकी, दुर्गा थापे कृष्णजन्माष्टमी आदि प्रमुख हैं।

ज्यूँति मुख्य रुप से विवाह, नामकरण, छटी, यज्ञोपवीत संस्कार में पूजी जाती है। मुख्यतः इसका अंकन पूजाकक्ष व घरके प्रमुख कक्ष की दीवार पर होता है। महिलाएँ इसको बनाने में गुलनार (लाल) लड्डू - पीला व बैगनी रंग इस्तेमाल करती हैं। ज्यूँति का प्रधान स्वरुप आयताकार होता है। इसका अंकन कक्ष की दीवार अथवा वांछित पृष्टभूमि पर ऊपर से नीचे का ओर होता है। सबसे बाह्म किनारा बेलों द्वारा अलंकृत किया जाता है। इसके भीतर की ओर लाल रंग से क्रमशः छोटे हिमांचल, बेलबूटे, तथा बड़े हिमांचल बनायें जाते हैं। मुख्यतः हिमांचल का अंकन गेरुई अथवा लाल - गुलनार रंग से सफेद पृष्टभूमि पर किया जाता है। सम्भवतः हिमालय के दूसरे नाम हिमांचल के कारण इसे हिमांचल नाम दिया गया होगा; ये छोटे व पर्वतों के चोटियों सदृश होते हैं।

छट्टी व नामकरण संस्कार के अवसर पर बनने वाली ज्यूँति में तीन मातृकाएँ महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, दाहिनी ओर गणेश नीचे की ओर एक विशिष्ट डिजायन षोढ्श मात्रा बनायी जाती है। चारों ओर किनारों पर बनी छाजी बेल कहलाती है। इसके बाहर क्षैतिज आर उध्र्वाधर विनादुओं से बनी पुष्प बेल होती है।

अलंकरण के लिए प्रयुक्त बेल में प्रमुखतः खोरिया बेल, शंख की बेल तथा फूल की एक विशिष्ट आकृति बनायी जाती है। सज्जा के लिए विभिन्न पुष्पों व ज्यामितीय आकृतियों की बेलें भी बनायी जाती हैं।

यज्ञोपवित के अवसर पर बनने वाली ज्यूँति केन्द्र में तीन जीव मात्रिकाएँ व गणेश अपने वाहन सहित अंकित किये जाते हैं। नीचे की ओर प्रतीकात्मक स्वरुपों में सोलह मात्रिकाएँ व सबसे ऊपर सूर्य, चन्द्रमा और तारे तथा दोनों ओर की पट्टियों में सांगालियावार बनाये जाते हैं। चारों ओर से छाज द्वार से आवृत कर मंदिर की कल्पना की जाती हैं। छाज द्वार का अर्थ है - छज्जा अथवा झरोखा। जीव मात्रिकाओं में ऊपर की ओर बायीं तरफ विशिष्ट आकृति, जनेऊ तथा जनेऊ छपरी बनाते हैं, मध्य में कल्पतरु का प्रतीक 'हरे का वृक्ष' है। एक स्थानीय वृक्ष अथवा बरगद का वृक्ष बनाया जाता है, जिसे हरेला वोट कहते हैं। प्रायः नीचे की ओर षडभुज अंकित किये जाते हैं।

केन्द्र के मुख्य भाग के दोनों ओर क्षैतिज पट्टियों में वरबूँद या वर डाले जाते हैं। वरबूँद मुख्यतः २४ या ३६ बिन्दुओं से बने होते हैं। बिन्दु और रेखाओं को विभिन्न तरीकों से मिलाकर अनेक प्रकार के ज्यामितीय अलंकरण बनाये जाते हैं जो बनाने के तरीकों में विभिन्नता के कारण विभिन्न नामों सांगली, कक्ष की मछरी व गलीची वर आदि नामों से पहचाने जाते हैं। कक्ष की दीवारों पर किनारों की ओर अतिरिक्त जगह होने पर उन्नीस बिन्दुओं वाले भद्र का अतिरिक्त निर्माण होता है। इसके अलावा हरिहरमंडल, गौरीतिलक नामक जटिल वर भी बनाये जाते हैं। ये सब अलग अलग प्रकार से बिन्दुओं को मिलाकर बनाये जाते हैं। इन वरों में लाल - गुलनार, सुनहरी-पीले व हरे बैंगनी रंग की प्रधानता होती है।

विवाह संस्कार में प्रयुक्त होनेवाली ज्यूँति में जनेऊ तथा छापरी नहीं बनती। हरे का वृक्ष के पास विशिष्ट आकृति के कमल का फूल और राधाकृष्ण बनाये जाते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली ज्यूँति मातृकाएं क्रमशः महाकाली, ओर महालक्ष्मी मानी जाती हैं। इन मातृकाओं व गण्श को भी लाल, पीले, हरे रंग से तैयार किया जाता है तथा स्थानीय परिवेश के अनुरुप राधा को सिर पर मुकुट, लहंगा, पिछौड़ा, से सज्जित किया जाता है।

कुछ समय पूर्व तक ज्यूँति का अंकन प्रधानतः कक्ष की दीवारों पर गृहनिर्मित रंगों से होता था। जिसके लिए लाल रंग बिस्वार में गुलनार मिलाकर बनाते थे। अब पिले रंग के लिए बिस्वार में हल्दी व लड्डू पीला रंग मिलाया जाता है। सरलता से वरबूँद बनाने के लिए बिन्दुओं का अंकन किया जाता है जिसे महिलाएँ प्रायः गुड़ व कोयला मिलाकर प्रयोग करती थीं। पूरी ज्यूँति बनाने मालू के पत्ते की डंटल का प्रयोग सींक या ब्रुश के रुप में होता हैं। बदलते परिवाश के साथ ज्यूँति का अंकन भी तेल व जल से कागज पर होने लगा है। यह आलेखन मुख्यतः कुमाऊँ के शाह परिवारों में बनाया जाता है जो कुछ विभिन्नता के साथ ब्राह्मण पिरवारों में भी प्रयोग में जाते जाते हैं। प्रायः ब्राहम्ण परिवारों में ज्यूँति पट्टे में कमल का फूल, हरे रंग का वृक्ष, तोते व वरवधु न बनाने का बात भी कुछ वृद्ध महिलाओं ने कही है। कुछ लोग मानते हैं कि ज्यूँति चित्रों पर सेन और पाली चित्रकला का प्रभाव स्पष्ट है। पूर्व नेपाल के चित्रकार पश्चिमी शैली में कार्य करते थे, जिन्होंने बाद में पूर्वी शैली को अपना लिया। यह शैली कालान्तर में सेन और पाल शैली कहलायी।

इस शैली में अल्पनायें लाल, नीले, पीले काले व सफेद रंग से निर्मित होती थी जो कुमाऊँ के बरबूँद, थापा, ज्यूँति पट्टे और अन्य भित्ति चित्रों पर दिखाई देती है।

कुमार्ंचल के आलेखनों में बंगाल के सेन, पाली शासनकाल की ब्रज-यानी परम्परा का कुछ प्रभाव पड़ा है। यहाँ के बारबूँद अपने विशिष्ट लेखन व रंग के निर्माण के विभिन्न तरीकों के कारण तेरह प्रकार के पाये गये हैं जिनपर तात्कालिक भोट, हूण प्रदेश का प्रभाव है। भगवान शंकर तथा विष्णु के नामों पर आधारित इनके कई नाम हैं यथा - शिव पार्वती के नाम का गौरतिलक वर एवं विष्णु - लक्ष्मी के नाम का हरिहरमंडल वर यहाँ प्रायः बनाये जाते हैं वैसे आजकल सभी जातियों में बनाये जानेवाले ज्यूँति पट्टों में कोई जेयादा अन्तर नहीं रखा जाता। सभी लोग एक से ही ज्यूँति पट्टों का प्रयोग करने लगे हैं।

कुमाऊँ में ज्यूँति के अतिरिक्त घरों में जिस अनुकृति को सर्वाधिक बनाया जाता है वह है-दुर्गा थापा। दुर्गा पूजा हेतु पूजा कक्षों में जमीन पर लिखे जानेवाले आलेखनों के अतिरिक्त दीवारों पर निर्मित थापे भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें दूर्गा थापा प्रमुखता से स्थापित किया जाता है। थापा शब्द का अरथ है-प्रतिष्ठा। ये प्रारम्भ कक्ष की दीवारों पर स्थापित होते थे, कालान्तर में अब इनका प्रयोग कागज पर होने लगा है। थापे विशेषकर नवरात्रियों में पूजे जाते हैं। वरबूँद की भाँति थापे रंगीन लाल, हरे, पीले रंग से निर्मित होते हैं। इनमें शक्ति के कई स्वरुपों, प्रतीकों, क्षेज्त्र विशेष के देवताओं का चित्रण होता हैं। इसी कारण शैली की दुष्टि से ये चित्रात्मक शैली के अन्तर्गत आते हैं।

थापे का स्वरुप दीवार के अनुसार आयताकार या फिर वर्गाकार हो सकता है। थापे के केन्द्र में आ,#्टभुजाधारी देवी दुर्गा को सिंह पर आरुढ़ दिखाया जाता है। देवी के दाहिनी ओर कोटकांगड़ा देवी, बायीं ओर अट्ठारह ङाथ वाली नव दिर्गा की आकृति बनायी जाती है जिनके आगे बायीं ओर पुण्यागिरी और दायीं ओर दूनागिरी देवी अंकित होती हैं। पुण्यागिरी देवी नैनीताल में टमकपुर के पास तथा दूनागिरी देवी अल्मोड़ा जनपद में द्वारहाट के पास द्रोणागिरी पर्वत पर अवस्थित हैं। बीच-बीच में कलमदलों द्वारा आवृत  देवी के यंत्र भी बनाये जाते हैं। इस यंत्र में ऊपर एवं नीचे की ओर काटते हुए अधोमुखी तथा ऊर्ध्वमुखी त्रिभुजों को अंकित किया जाता है। यह यंत्र प्रायः बारहदलों के कमलदल से आवृत रहता हैं। सबसे ऊपर लक्ष्मी और विष्णु के प्रतीक सुवासारंग, ब्रह्माण्ड, सरस्वती, सूर्य, चन्द्र तथा लोक देवताओं के रुप में भोलानाथ तथा गोलानाथ अंकित किए जाते हैं। गोलानथ प्रायः अशेव की रास पकड़े दिखाये देते हैं। दाहिने कोने पर नवचंडी का यंत्र तथा चामुण्डा यंत्र बनाये हैं।

इसके नीचे दिन तथा रात्रि के प्रतीक अंधियारी उजियारी देवीयाँ दर्शित की जाती हैं। स्वास्तिक, रामलक्ष्मण, बालाबर्मी, लमकुरा छः शीश वाली दुर्गा, लक्ष्मी तथा गणेश आदि देवता चित्रित किये जाते हैं। इनमें से कुछ क्षेत्र विशेष के देवता हैं। इस थापे की देवी के कई प्रतीकों और चिन्हों की स्थापना करके पूर्ती की जाती है।

ज्यूँति पट्टों में जहाँ तक रंगों के प्रयोग का प्रश्न है - रंग मनुष्य के आन्तरिक मनोभावों को चेतन करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। रंगों का जीवन के साथ रागात्मक तारतम्य होता है; सौन्दर्य बोध भी रंगों के विभिन्न सम्मिश्रणों से ज्यादा निखर उठता है।

ज्यूँति में प्रयुक्त रंग पंच  तत्वों का भी बोध करते हैं, विभिन्न रंगों से पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश तथा वायु का भी बोध होता है। पीले रंग से पृथ्वी का, श्वेत से पानी का, लाल रंग से अग्नि का, काले तथा नीले रंग से आसमान बोध होता है, प्रकृति के तीन प्रमुख गुण सत्, रज्, तम् भी इन रंगों से ही व्यक्त किये जाते हैं। पवित्रता का सूचक है - श्वेत। यही सत् का भी प्रतीक है। रज् को लाल रंग से अभिव्यक्ति दी जाती है, इसे सृजनता का भी प्रतीक मानते हैं। काला रंग जड़त्व का प्रतीक होता है; .ह तम को व्यक्त करता है, अंधकार को प्रतिबिम्बित करता है। वैसे भी सफेद रंग पवित्रता और सरलता का बोध कराता है, हरा रंग एकांतता, नीला रंग अविराम शांति, पीला रंग आध्यात्मिकता तथा विकासशीलता, काला रंग विरक्ति को दर्शाता है।

गोवर्धन पूजा पर बनाये जानेवाले प के केन्द्र में अपनी दाहिनी ओर हाथ की कनिष्ठिका से गोवर्धन पर्वत को धारण किये मुरलीवादक कृष्ण दर्शाये जाते हैं। कृष्ण के अगल - बगल दो सखा छड़ियों से पर्वत को सहारा दिये रहते हैं। बायीं ओर का सखा और गोपी दही सथते हुए, ऊपर बायें कोने में सूर्य और गोपी ग्वाला पुष्प चढ़ाते हुए दहिनी ओर बीच में ग्वाला दूध दही का घट लिए हुए व उसके सामने एक गोपी चित्रित की जाती है; पर दाहिनी ओर कोने में चन्द्रमा और गणेश तथा रिद्धि - सिद्धि बनाये जाते हैं। निचली पंक्ति में बायीं ओर सिरों पर मटकियाँ लिए हुए गोपियां तथा ग्वाला बछड़े को भोजन देता हुआ चित्रित कियाजाता है।

कृष्ण जन्माष्टमी पूजा के लिए भी पट्टे बनाये जाते हैं, यह पट्टा योगीश्वर कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से चित्रित रहता है तथा कई चित्र संयोजन से पट्टा पूरा किया जाता है। गायें चराते कृष्ण, चीरहरण करते कृष्ण मुख्य रुप से दर्शायें जाते हैं, बायीं ओर चतुर्भजी शिव, दायीं ओर विनायक गणेश तथा सिंह, नदी तथा पार्वती दर्शायी जाती हैं।

स्थानीय वृक्षों के रुप में सम्पन्नता के प्रतीक 'कुकुरी- मुकुरी' वृक्ष को फल-फूल तथा पक्षियों सहित अंकित किया जाता है। सात रानियाँ नौले की ओर जाती हुई, गजलक्षमी तथा जलस्रोत व मंगल कलश दर्शायें जाते हैं। ॠद्धि गणेश व शुक सारंग, सूर्य, चन्द्र और सरस्वती के रुप में पंचशीर्ष तारा बनाया जाता है।

मध्य में देवकी और यशोदा कृष्ण को दुलारकर झुलाते हुए, विघ्नेशवर गणेश और मात्रिकायें तथा प्रकाश का जनक सूर्य अंकित रहता है। नन्द को भी चित्रित करने की परम्परा है। विष्णु अवतार, सप्तॠषि, कृष्ण पूजन करती नाग कन्यायें, कालिया दमन, बाल कृष्ण को ले जाते वासुदेव। नौ बिन्दुओं का खोरिया, कल्पतरु, कृष्णमस्तकपर तिलक चन्दन देती हुई कुब्जा अंकित रहती हैं। 

अंतिम पंक्ति में रुक्मणि, कृष्ण, राधा, पवनपुत्र हनुमान, राम लक्षमणऔर सीता बनाये जाते हैं। विष्णु और लक्ष्मी के प्रतीक शुक-सारंग, ब्रह्मा सहित ब्रह्माणी आदि अंकित किये जाते हैं।

 

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