उत्तरांचल

रंगवाली का पिछौड़ा


समूचे कुमाऊँ में शुभ अवसरों पर महिलायें तेज पीले रंग पर गहरे लाल रंग से बनी ओढ़नी पहनेदेखी जा सकती हैं। इसे रंगौली का पिछौड़ा या रंगवाली का पिछौड़ा कहते हैं। शादी, नामकरण, व्रत त्यौहार, पूजन अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बन्धन के इसका प्रयोग होता है। यद्दपि यह वस्र बाजार में बना बनाया सुगमतासे उपलब्ध है तो भी घरों में परम्परागत रुप से इसको बनाने का प्रचलन है।

रंगौली का पिछौड़ा बनाने के लिए वायल या चिकन का कपड़ा काम में लाया जाता है। पौने तीन अथवा तीन माटर लम्बा, सवा मीटर तक चौड़ा सफैद कपड़ा लेकर उसे गहर पिले रंग में रंग लिया जाता है। आजकल यद्यपि रंगाई के लिए सिन्थेटिक रंगों का प्रचलन है तथापि परम्परागत रुप से जब इसकी रंगाई की जाती थी तब किलमौड़े के जड़ को पीसकर अथवा हल्दी से रंग तैयार किया जाता था। रंगने के बाद इस वस्र को छाया में सुखा लिया जाता है।

लाल रंग बनाने के लिए महिलायें कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़कर, सुहागा डालकर ताँबे के बर्तन में रात के अंधेरे में रख देती हैं। सुबह इस सामग्री को नींबू के रस में पका लिया जाता है।

रंगाकन के लिये कपड़े के बीच में केन्द्र स्थापित कर खोरिया अथवा स्वास्तिक बनाया जाता है। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि खोरिया एक दम बीचोंबीच हो, नहीं तो समूचा रंगाकन खराब हो सकता है। इसको चारों कोनों पर सूर्य, चन्द्रमा, शंख, घट आदि से अलंकृत किया जाता है, कुछ महिलायें सिक्के पर कपड़ा लपेटकर केन्द्रीय वृत का निमार्ंण करती हैं। रंगाकन ठप्पे की सहायता से पूरा होता है।

गहरे पीले रंग पर ब्राह्मण परिवारों में गुलाबी अथवा गुलाबी लाल रंग का प्रयोग होता है जबकि शाह लोगों 'कुसुमिया तरीके' में पीले रंग पर गुलनार - लाल रंग का प्रयोग होता है। लाल रंग वैवाहिक संयुक्तता का, अग्नि के दाह का, स्वास्थ्य तथा सम्पन्नता का प्रतीक है जबकि सुनहरा रंग भौतिक जगत् की मुक्य धारा को दर्शाता है।

 

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